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________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ८३ नहीं होती। वस्तु वस्तु है, वह और कुछ नहीं। परन्तु मनुष्य की दृष्टि जिस पर जम जाती है, उसकी प्रशंसा करता है, जिस पर से दृष्टि उखड़ जाती है, उसकी निन्दा करता है। आँखों पर जिस रंग का चश्मा लगा लिया जाता है, दृश्यमान वस्तुएँ प्रायः उसी रंग की - इष्ट या अनिष्ट रूप की दिखती हैं। जड़ पदार्थों का वास्तविक स्वरूप जड़-चेतनाहीन होता है। यह राग और द्वेष के परिणाम का ही करिश्मा है कि कभी रागवश अप्रिय अथवा प्रियता - अप्रियता से रहित वस्तु को भी प्रिय मान लेता है, और कभी द्वेषवश उसी प्रिय मानी हुई वस्तु को अप्रिय मान लेता है । ' पिंगला रानी पर पहले राग, फिर द्वेष, फिर विराग ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में इन्हीं दो तत्त्वों के परिणाम या अध्यवसाय से ही कर्मबन्ध का बीजारोपण होता है। भर्तृहरि को एक दिन पिंगला रानी बहुत प्रिय थी । उसके प्रति रागवश मोहान्ध होकर उन्होंने ' शृंगारशतक' लिखा किन्तु जिस दिन उन्होंने पिंगला की ही नहीं, काम की वास्तविकता समझी, उस दिन उन्होंने पिंगला का घृणावश त्याग कर दिया। उन्होंने जिस पर राग किया था, उसके प्रति द्वेषभाव हो गया। परन्तु जिस दिन उन्हें राग और द्वेष से जीवन की कलुषता का भान हुआ, उस दिन उन्होंने इन दोनों से विरक्ति प्राप्त कर ली। मनोज्ञ और अमनोज्ञ लगने वाले विषयभोगों के प्रति उन्हें वैराग्य हो गया। फलतः राग और द्वेष से जो कर्मबन्धन गाढ़ होने वाला था, वह नहीं हो पाया, उसका स्थान विराग और त्याग ने ले लिया । २ जड़ पदार्थों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं, प्रतिक्रिया व्यक्ति की ओर से ही प्रत्येक मनुष्य को अपने दैनिक जीवन में अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों से वास्ता • पड़ता है, और कई वस्तुओं और व्यक्तियों से सम्बन्ध भी रखना पड़ता है। सम्बन्ध होने पर साधारण व्यक्ति किसी के साथ घनिष्ठता जोड़ लेता है और किसी के प्रति उपेक्षा, घृणा या अवज्ञा की दृष्टि बना लेता है। पदार्थों की ओर से तो कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं होती। उन्हें उपयोग में लाने से न तो उन्हें कोई प्रसन्नता होती है और न ही अप्रसन्नता। इसी प्रकार उन्हें उपयोग में न लाने या उनके प्रति उपेक्षा करने से भी उन जड़ पदार्थों की ओर से कोई शिकायत या नाराजगी नहीं होती है । इस दृष्टि से जड़ पदार्थों के प्रति जो ममभाव या ममत्व भाव उस व्यक्ति की ओर से ही जुड़ता है, इसी प्रकार द्वेषभाव, घृणाभाव या उपेक्षाभाव भी होता है या प्रदर्शित किया जाता है, वह भी मात्र उस व्यक्ति की ओर से ही होता या किया जाता है। इसी प्रकार जिस पर व्यक्ति अपनेपन की छाप लगा देता है, उस प्राणी, मनुष्य, मित्र या स्वजन के प्रति रागभाववश ममत्व सम्बन्ध जोड़ लेता है, तथा जिन प्राणियों, व्यक्तियों या अपने से १. अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७८ में प्रकाशित 'आत्मनिरीक्षण और आत्मनियंत्रण' शीर्षक लेख से भावांशग्रहण | २. जिनवाणी, सितम्बर १९९० में प्रकाशित 'राग में दु:ख, त्याग में सुख, लेख से । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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