SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ८१ करता है, तथा वृक्षछेदनादि कार्य करता है। परन्तु अब तेलादि की चिकनाई न होने से उसके शरीर पर धूल नहीं चिपकती और न जमती है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अनेकविध योगों-मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहता है, किन्तु उसके उपयोग (परिणाम) में रागादि का अभाव रहने से वह कर्म रज से लिप्त-बद्ध नहीं होता । " १ कर्म राग-द्वेष से बँधते हैं, किसी प्रवृत्ति या क्रियामात्र से नहीं स्थानांग, भगवती आदि जैनागमों में बताया गया है - कर्म का बन्ध दो ही स्थानों से होता है- इनमें से एक स्थान है राग का और दूसरा स्थान है- द्वेष का । कर्म आत्मा के साथ चिपकते हैं या बँधते हैं- - राग और द्वेष से । २ कोरे ज्ञान से या कोरी प्रानसिक, वाचिक या कायिक प्रवृत्ति या क्रिया से बन्ध या सम्बन्ध नहीं होता। और न कोरी वासना से, स्मृति से या केवल संस्कार से कर्मबन्ध होता है। जब तक किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया की पृष्ठभूमि में राग या द्वेष नहीं होता, तब तक कर्म का बन्ध या सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। किसी भी क्रिया या प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष का, प्रियता-अप्रियता का, इष्ट-अनिष्ट का, आसक्ति और घृणा का संवेदन या परिणाम होता है, तभी कर्मबन्ध या कर्म के साथ संश्लेष, सम्बन्ध होता है। संसार की समस्त संवेदनाएँ, परिणाम, या अनुभूतियाँ राग और द्वेष अथवा प्रियता - अप्रियता इन दो में समाविष्ट हो जाती हैं। वैसे जैनागमों में किसी भी मानसिक, वाचिक या कायिक प्रवृत्ति के पीछे राग और द्वेष को ही बन्धनरूप कहा गया है। इन्हीं को दूसरे शब्दों में प्रेयबन्ध और द्वेषबन्ध कहा गया है। जीव इन्हीं दो स्थानों से पापकर्म बाँधता है। आचारांगसूत्र में ये ही दो संसार के कारण बताये गए हैं। राग और द्वेष : दो प्रकार की बिजली की तरह दो प्रकार की बिजली होती है। एक अपनी ओर खींचती है, जबकि दूसरी झटका देकर आदमी को दूर फेंक देती है। किन्तु दोनों ही प्रकार की बिजलियाँ मारक होती हैं। दोनों का दुष्परिणाम मनुष्य को भोगना पड़ता है। दोनों का स्वरूप घातक है, हानिकारक है। ऐसे ही राग और द्वेष भी होते हैं। राग आपनी ओर प्राणियों को खींचने का काम करता है, जबकि द्वेष झटका देकर दूर फेंकने वाली विद्युत की तरह है। रागभाव चाहें किसी व्यक्ति के प्रति हो, वस्तु के प्रति हो, किसी प्रशंसा, कीर्ति, प्रतिष्ठा या परिस्थिति के प्रति हो, रागाविष्ट व्यक्ति उसकी ओर खिंचता चला जाता १. देखें- समयसार गा. २३७ से २४६ तक का भावार्थ । २. (कं) दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा पेज्जबंध चेव दोसबंधे चेव । (ख) जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पावकम्मं बंधंति, तं जहा- रागेण चेव (ग) पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं, रागबंधणेणं, दोसबंधणेणं । Jain Education International - स्थानांग स्था. २/९१ दोसेण चेव । - वही स्थान २, उ. ३, सू. ९१ - आवश्यक सूत्र For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy