________________
= कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष
=
कर्मरूप विशाल महावृक्ष के बन्ध के बीज : राग और द्वेष विशाल महावृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, शाखा-प्रशाखा, मूल एवं स्कन्ध के सहित उत्पन्न होने, अंकुरित एवं विकसित होने का सर्वप्रथम और प्रमुख श्रेय बीज को होता है। बीज ही न हो तो मूल, अंकुर, पत्र, पुष्प, फल, शाखा-प्रशाखा एवं स्कन्ध की कल्पना कोरी शेखचिल्ली की कल्पना है। इसी प्रकार कर्म-महावृक्ष के व्यवस्थित बन्ध होने में राग और द्वेष ये दो बीज न हों तो कर्म की सत्ता, उदय, उदीरणा, निर्जरा, संवर, आम्रव, उत्कर्षण-अपकर्षण, संक्रमण एवं कर्म-मुक्ति की कल्पना भी कोरी निरर्थक कल्पना होती है। परन्तु वीतराग सर्वज्ञ महापुरुषों के समक्ष जब यह प्रश्न आया कि कर्म-महावृक्ष के बन्ध का बीज क्या है ? तो उन्होंने कहा
रागो य दोसो वि य कम्म-बीयं ?१ राग और द्वेष, ये दोनों कर्म (बन्ध) के बीज हैं।
कर्म का बन्ध : हृदयभूमि पर रागादि का बीजारोपण होने पर जिस प्रकार जमीन पर वृक्ष को भलीभाँति उगाने, अंकुरित करने और जमीन के साथ उसकी जड़ को सुदृढ़ रूप से बाँधने के लिए सर्वप्रथम बीजारोपण आवश्यक है। यदि बीजारोपण नहीं हुआ या बीज को ठीक ढंग से व्यवस्थित रूप से जमीन में बोया नहीं गया तो वृक्ष की जड़ मजबूती से नहीं बँधती और ऐसी स्थिति में वृक्ष का अंकुरित, पुष्पित-फलित आदि होना कठिन है। अशक्य है। इसी प्रकार राग-द्वेषरूप बीजों का रोपण आदि हृदयभूमि पर नहीं होगा तो कर्मरूपी महावृक्ष का अंकुरित, पुष्पित-फलित और विकसित होना तो दूर रहा, उसका मूलबन्ध होना भी अशक्य है। समयसार में इसी तथ्य को संक्षेप में कहा गया है-“रागादि परिणामविशिष्ट जीव ही कर्मों का बन्ध करता है। राग-रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है। जीवों के साथ
१. उत्तराध्ययन अ. ३२, गा. ७ ।
७९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org