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________________ ५२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) हो जाती, मस्तिष्क के स्मृतिकोष में वह प्रवृत्ति अंकित हो जाती है। जो प्रवृत्ति या क्रिया राग-द्वेष या कषाय से युक्त होती है, वह समाप्त नहीं हो जाती, वह अपना संस्कार छोड़ जाती है। फिर जैसे ही निमित्त मिलता है, समय आने पर उसकी स्मृति उभरती है, वृत्ति उत्तेजित होती है, और उक्त प्रवृत्ति को करने के लिए जी मचलता है, लार टपकती है, सूक्ष्म वासना, कामना और लालसा मिलकर मन ही मन उसी क्रिया या प्रवृत्ति को करने के लिए जोर मारती हैं। अतः एक बार क्रिया समाप्त होने पर भी उसकी प्रतिक्रिया चलती रहती है। यह शृंखला एक बार नहीं, एक वर्ष नहीं, हजार लाख बार, और हजारों-लाखों-करोड़ों वर्षों तक-जन्म-जन्मातर तक चलती रहती है। यही जीव के साथ अनादिकाल से पुनः पुनः कर्मबन्ध होने का रहस्य है। यह कर्मचक्र तब तक चलता रहेगा, जब तक वह प्रवृत्ति मूलतः नष्ट न हो जाए, या नष्ट न कर दी जाए। ___ इसे एक सरल दृष्टान्त से समझिए-मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए कुम्भकार डंडे से चाक को घुमाता है। परन्तु डंडा और कुम्भकार दोनों के अलग हो जाने पर भी कुछ देर तक चाक घूमता ही रहता है। डंडे के द्वारा घुमाने से चाक में घूमते रहने का संस्कार पड़ जाता है। इसी कारण घुमाना बंद करने पर भी चाक कुछ देर तक घूमता ही रहता है। __इसी प्रकार डोरी लपेटकर जब लटू घुमाया जाता है, तब डोरी अलग होने पर भी बहुत देर तक वह लटू अपने आप घूमता रहता है। इसी का नाम संस्कार पड़ जाना या आदत (हैबिट-Habit) पड़ जाना है। ___ बार-बार किसी प्रवृत्ति या क्रिया को (राग द्वेष युक्त) चस्के से करते रहने से जो आदत पड़ जाती है, वह पक्की होकर छूटनी मुश्किल हो जाती है। किसी व्यक्ति को भांग, चरस या शराब पीने आदि किसी नशे की लत लग गई, वह उस आदत को छोड़ने का इरादा करता है, फिर भी नहीं छूटती, छूट भी जाती है, किन्तु कमजोर मन वाले मन ही मन उस प्रवृत्ति के लिए ललचाते हैं, अथवा किसी दूसरे नशे की आदत डाल लेते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का चक्र ही अनादिकालीन कर्मबन्ध का द्योतक यह ध्वनि की प्रतिध्वनि, क्रिया की प्रतिक्रिया, प्रवृत्ति की प्रतिप्रवृत्ति या पुनरावृत्ति का सिद्धान्त है। क्रिया छोटी-सी अल्पकालीन होती है, किन्तु उसकी प्रतिक्रिया बड़ी और दीर्घकालीन होती है। रागद्वेष और कर्मबन्ध का यह प्रवाहरूप से अनादिकालिक सिद्धान्त मनोविज्ञान से भी समर्थित है। कोई व्यक्ति एक बार जो प्रवृत्ति कर लेता है तो फिर दुबारा भी १. (क) भाग्य और पुरुषार्थ (सूरजभान जी वकील) से भावग्रहण, पृ. १० (ख) जैनयोग से भावांश-ग्रहण, पृ. ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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