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________________ योग- आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६१५ (अणु या मौलीक्यूल) टूटती रहती हैं और नई का निर्माण तथा पुरानी में कुछ परिवर्तन होता रहता है। इस दृष्टि से कार्मण शरीर को बनाने वाली बीजरूप या प्रतिरूप वर्गणाओं में भी सतत परिवर्तन तथा रसायनों का सम्मिश्रण भी होता रहता है। इनका भी गुण प्रभाव इनको बनाने वाले अणुओं के गुण- प्रभाव से भिन्न होता है। ये भी देहधारी के कार्यों पर प्रभाव डालते हैं। कोई भी देहधारी या मानव एक भरे-पूरे संसार में स्थित होने से हर ओर से अनन्तानन्त जीवों और पुद्गलों निर्मित वस्तुओं से घिरा रहता है। कम्पन-प्रकम्पनादि के द्वारा पुद्गल-परमाणुओं और वर्गणाओं का अजन प्रवाह पारस्परिक क्रिया-प्रक्रिया के कारण अदल-बदल होता रहता है। शरीर के भीतर की वर्गणाओं से भी पारस्परिक क्रिया-प्रक्रिया एवं कम्पन-प्रकम्पन द्वारा पुद्गल परमाणु एक-दूसरे से निकलते और प्रवेश करते रहते हैं। यह प्रवाह सदा चलता रहता है। व्यक्ति के कार्यों द्वारा कम्पित होकर छूटने या बाहर से आने वाले पुद्गल परमाणु भी शरीर की पौद्गलिक या रासायनिक संरचना में प्रविष्ट एवं प्रवाहित होते रहते हैं। योग द्वारा कम्पन प्रकम्पन ही से पुद्गल परमाणुओं का यह प्रवाह काफी व्यापक एवं वृद्धिंगत होता है। ऐसे प्रवाह को जो जीव की कार्मण-वर्गणाओं में परिवर्तन लाता है, उसका मुख्य हेतु योग-आनव है। किन्तु आन्तरिक संरचना से प्रवाहित जो पुद्गल परमाणु देहधारी की कार्मण-वर्गणाओं या कार्मणशरीर में परिवर्तन नहीं लाते, अथवा जो देहधारी के विचारों और कार्यों को प्रभावित नहीं करते, उनकी गणना आनव में नहीं की जाती । अतः आस्रव का मुख्य कारण योग को बतलाया गया है।" आत्मा की क्रिया का कर्मपरमाणुओं से संयोग ही योग है योग का अर्थ अगर यह किया जाए कि जो संयोग को प्राप्त हो, उसे योग कहते हैं, तब तो वस्त्रादि का भी शरीर से संयोग होता है, वे भी योग कहलाने लगेंगे, परन्तु वस्त्रादि आत्मा के धर्म (स्वभाव) नहीं हैं। इसलिए वस्त्रादि को योग नहीं कहा जा सकता। परन्तु जैन परम्परा में मन, वचन, काया से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्मपरमाणुओं से आत्मा का योग अर्थात् संयोग कराती है, इसलिए उसे योग कहा जाता है। गति को भी योग नहीं कहा जा सकता इसी प्रकार गति को भी योग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि योग - आम्रव में कम्पन, हलचल या परिस्पन्द क्रिया होती है। जैन परम्परा में गति, जीव से सम्बद्ध १. वही, पृ. ११५-११६ २. " युज्यत इति योग: ? न युज्यमान पटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादानहेतुत्वाभावात् ॥” Jain Education International - धवला १/१, १, ४/१३९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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