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________________ १०३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) एक मनुष्य का मन दिनभर बुरे विचारों में डूबा रहता था, मन में दुर्भावनाएं उमड़ रही थीं । गुरुदेव ने उसे प्रेरणा दी - तुम नवकार मंत्र के जाप में तल्लीन हो जाओ, तुम्हारे बुरे विचार एवं दुर्भावनाएँ, जो पापानव की कारण हैं, पलायित हो जाएँगी, उन्नत विचार पनपेंगे। उसने ऐसा ही किया। एक व्यक्ति दिनभर उठने वाले बुरे विचारों से तंग आ गया, अतः किसी ने उसे प्रतिदिन छह घंटे स्वाध्याय करने की सलाह दी। उसने इस प्रकार का संकल्प किया! स्वाध्याय में लग गया। फलतः दिनभर उठने वाले बुरे विचारों का उन्नयन हो गया, उनके बदले अच्छे विचार आने लगे, भावना पवित्र हो गई। 4 इसी प्रकार किसी भी बुराई से बचने के लिए उसके स्थान पर अच्छे विचारों के लिए स्वाध्याय, नामस्मरण आदि का आश्रय लेने से उनका उदात्तीकरण हो सकता है। मनोवैज्ञानिकों ने भी उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) का प्रयोग किया है। कोई व्यक्ति किसी स्त्री को देखकर उसके प्रति मोहित हो गया। रातदिन उसको पाने की चिन्ता करने लगा। किन्तु वह किसी भी प्रकार से मिली नहीं, मिलना भी सम्भव न था । यह देखकर उसने अपने तन-मन को संगीतकला, चित्रकला या अन्य किसी साहित्यसृजन कविता रचना आदि में लगा दिया, जिससे उसको भुलाकर कला में या अन्य शुभ कार्य में संलग्न हो गया और इस बुराई से बचाव हो गया ।" यद्यपि यह प्रक्रिया अध्यात्मसंवर के उद्देश्य को सिद्ध नहीं करती, फिर भी पापालव का निरोध करने में किसी हद तक सफल होती है। अध्यात्म संवर की सिद्धि के लिए स्वाध्याय, ध्यान, वैषावृत्य, व्रताचरण का संकल्प, प्रतिज्ञाबद्धता या ऐसी कोई उदात्तीकरण की प्रक्रिया अपनाना उचित है। जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है(अध्यात्म संवर का) साधक निद्रा को अत्यधिक तूल न दे, अधिक शयन न करे, अत्यन्त हास-परिहास का त्याग करे, तथा परस्पर गपशप में या निन्दा - विकथाओं में रत न हो, (प्रत्युत, शयन, हास्य एवं विकया के बदले ) वह सदा स्वाध्याय में रत रहे । इस प्रकार उदात्तीकरण या वृत्ति का उन्नयनीकरण भी आत्मयुद्ध का एक प्रकार है। इस उपाय से आनद का काफी अंशों में निरोध हो जाता है और संवरसाधना में सुगमता हो जाती है। आत्मयुद्ध का धीया प्रकार : समत्व में स्थिरीकरण इसके पश्चात् आत्मयुद्ध का चौथा प्रकार है-समत्व में स्थिरीकरण। जिस समय संवर-साधक के मन में चिन्ता, शोक, आर्त्तध्यान तथा इष्टवस्तु या व्यक्ति के वियोग एवं 9. अखण्ड ज्योति मई १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ३५ २. निद्द च न बहुमनिज्जा, सप्पहासं विवज्जए । मिहोकड़ाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक ८/४२ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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