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________________ १०२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्रमादी मनुष्य इन सातों भयों से आक्रान्त रहता है। जहाँ ये भय होते हैं, वहाँ सतत बाह्य संघर्ष करना पड़ता है। फिर आन्तरिक संघर्ष (युद्ध) करने की क्षमता या शक्ति नहीं रहती ।" इसलिए प्रमाद अध्यात्मसंबर में बाधक है, आम्रवों को आमंत्रित करने वाला है। इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है कि “अध्यात्मसंवर का मेधावी साधक लोक (संसार परिभ्रमण के कारणभूत परिग्रह हिंसादि के कारण समस्त दुःखरूप) तथा लोक संज्ञाओं (आहारादि दस प्रकार की संज्ञा ) अथवा यश: कामना, अहंकार-प्रदर्शन की. भावना, मोह-मूढ़ता, विचारमूढ़ता, विषयाभिलाषा या गतानुगतिक वृत्ति आदि, (अथवा मनगढंत लौकिक रीतिरिवाज) को सर्व प्रकार से जानकर उनके चक्कर में न पड़े, उनका त्याग (वमन) कर दे। संवर मार्ग में पुरुषार्थ करे। वस्तुतः वही साधक मतिमान कहा गया है ।" आगे कहा गया- साधक समस्त कामों (काम-भोगों) के विषय में अप्रमत्त (सावधान) रहे । २०२ भगवान् महावीर ने अध्यात्मसंवर के साधकों को चेतावनी देते हुए कहा-' " साधको! देखो, ऊपर (कर्मों के आगमन - आनव के) स्रोत (द्वार) हैं, नीचे स्रोत हैं, और मध्य में (तिर्यग्दिशा में) स्रोत कहे गए हैं। ये स्रोत कर्मों के आनवद्वार कहे गए हैं, जिनके द्वारा प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा समझ लो ।” इन तीनों दिशाओं में या लोकों में जो स्रोत हैं, उन पर वृत्तिकार ने प्रकाश डाला हैं- कर्मों के आगमन (आव) द्वार ही स्रोत हैं, जो तीनों दिशाओं या लोकों में है। ऊर्ध्व-स्रोत हैं- वैमानिक देवांगनाओं या देवलोक के विषयसुखों की आसक्ति । अधोस्रोत है-भवन पति देवों के विषय सुखों की आसक्ति और तिर्यक् (मध्य) स्रोत हैं- तिर्यग्लोक ( मध्य-लोक) में व्यन्तरदेव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी विषय-सुखासक्ति। एक दृष्टि से इन्हीं स्रोतों को संग- आसक्ति समझना चाहिए। अध्यात्म संवर के साधक को इन स्रोतों से सदा सावधान रहना चाहिए। मन की गहराई में उतरकर इन्हें देखते रहना चाहिए। इन स्रोतों को बंद कर (रोक) देने पर ही कर्मबन्धन बंद होगा, अध्यात्मसंवर की सिद्धि होगी। अन्यथा, इनमें प्रमाद करने पर १. (क) "सब्बओ पमत्तस्स भयं सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । " (ख) सत्त भयाणा पण्णत्ता त-इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, मरणभए, असिलोगभा तिलोएम Jain Education International - आचारांग १/३/४ अकम्हाभए, वेयणभए, २. देखें- तं परिण्णाय मेहावी विदित्ता लोगे, वंता लोगसण्णं, से मइयं परक्कमेज्जसि । -स्थानोग स्थान ७ For Personal & Private Use Only - आचार १/२/६/स्. ९७ की व्याख्या (आ. प्र. स. ब्यावर | पृष्ठ ७४ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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