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कर्मों का आसव : स्वरूप और भेद ५६७ प्रति राग-द्वेष, मोह ही कर्मासव एवं कर्मबन्ध के कारण हैं। इसलिए सर्वप्रथम तो साधक अपनी किसी भी ज्ञानेन्द्रिय या कर्मेन्द्रिय को अनावश्यक ही किसी विषय में प्रवृत्त या प्रेरित न करे। परन्तु कदाचित् साधक की कोई भी इन्द्रिय बिना ही आवश्यकता के किसी विषय में प्रवृत्त हो जाए या होने लगे, मन जो छठी इन्द्रिय (नो-इन्द्रिय) है, वह किसी विषय में प्रवृत्त होने पर रागद्वेष करने लगे, तब साधक एक पल की भी देर किये बिना तत्क्षण उस विषय से अपनी उक्त इन्द्रिय तथा मन को हटा ले और उसे आत्मचिन्तन में, आत्मध्यान में लीन कर ले। इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग, द्वेष, मोह या आसक्ति के भंयकर दुष्परिणामों का विचार करके उनके प्रति एकदम उपेक्षा कर ले, अगर जरा-सी भी ढील की तो पतन निश्चित है।
इसीलिए आचारांग सत्र में कहा गया है-"संजमति, नो पगमति। अर्थात् व्यक्ति इन्द्रियों का संयम करे, उच्छृखल रूप से व्यवहार न करे।' ___ परन्तु अनिवार्य आवश्यकता ही हो, किसी विषय में प्रवृत्त होने की, तो राग-द्वेष निरपेक्ष होकर सहजभाव से प्रवृत्त हो, उसके साथ तालमेल का पूर्वोक्त मार्ग अपनाए। अन्यथा, इन्द्रिय आम्नव से कर्मों का आगमन और प्रवेश तथा तदनन्तर पापकर्मबन्ध निश्चित है। साम्परायिक कर्मास्रव का पंचम आधार :चौबीस क्रियाएँ
साम्परायिक कर्मों के आसव (आगमन) का पंचम आधार है-क्रिया। 'स्थानांगसूत्र में क्रियाओं के ५ वर्ग बनाकर कुल २५ क्रियाएँ बताई हैं। कषाययुक्त जीव
के मन-वचन-काया से होने वाली कोई भी क्रिया या प्रवृत्ति, हलचल या स्पन्दन साम्परायिक कर्मानव एवं कर्मबन्ध का कारण बन जाती है।
यहाँ २५ क्रियाएँ बताई गई हैं, उनमें से एक ईर्यापथिकी (इरियावहिया) क्रिया को छोड़कर शेष २४ क्रियाएँ साम्परोयिक कर्मानव की हेतु हैं-आधार हैं। इसलिए ये २४ क्रियाएँ नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक समस्त सकषाय जीवों के होती हैं। पच्चीसवीं ईर्यापथिकी क्रिया कषायमुक्त या उपशान्त कषाय मनुष्यों के ही होती है। पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं. . (१) कायिकी क्रिया-शरीर के अंगोपांग एवं इन्द्रियों से जो भी चेष्टा या प्रवृत्ति की जाती है, वह कायिकी क्रिया है। इसके तीन अवान्तर प्रकार हैं-(१) मिथ्यादृष्टि
१. आचारांग १/५/३/५३१ २. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) में पच्चीस क्रियाओं का विवेचन पृ. १५१-१५२
(ख) देखें-जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. ५८-५९ . - (ग) स्थानांग सूत्र, स्थान ५, उ.२, सूत्र ११५,११७, ११९ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर)
. पृ. ४८९-४९०
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