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________________ १०२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) निकल नहीं रहे हैं। शुद्ध आत्मा के चारों और ये घेरा डाले हुए पड़े हैं। इन नानाविधः कषायात्माओं के साथ शुद्ध आत्मा का युद्ध ही आत्मयुद्ध का वास्तविक रूप है। इसीलिए कहा गया-इन कषाय, विभाव, आत्मविरोधीरूपी आत्माओं के साथ ही युद्ध करो। _____ आत्मा के कई अर्थ होते हैं। अमरकोश में आत्मा (चेतना), यल, धृति, बुद्धि, . स्वभाव, ब्रह्म, शरीर आदि को आत्मा के पर्यायवाचक शब्द बताए हैं। .. प्रस्तुत प्रसंग में चार कषायों के कषायात्मा, पांच इन्द्रियों के इन्द्रिय-आत्मा, और मन-आत्मा, इन दस के समूह (यूनिट) से युद्ध करना है। आत्मयुद्ध में इन दशविध आत्म-समूह को पराजित करना है और शुद्ध ज्ञानचेतनात्मक आत्मा को विजयी बनाना' है। इसलिए कहा-आत्मा द्वारा आत्मा के साथ युद्ध करो। अर्थात्-आत्मयुद्ध करो। बाह्ययुद्ध से तुझे क्या प्रयोजन है ? उससे तो कर्मों के आनव, बन्ध और उनके फलस्वरूप दुःख ही बढ़ेंगे, जबकि आत्मयुद्ध में शुद्ध आत्मा की समता, क्षमा, निर्लोभता, मृदुता, . ऋजुता, मैत्री आदि विशाल गुण-सेना द्वारा कषायादि विकारों के रूप में विरोधी आत्माओं की सेना से युद्ध करके शुद्ध आत्मा को विजयी बनाने से अक्षय एवं निराबाध सुख में वृद्धि होगी। इस आन्तरिक युद्ध की रणभूमि चेतना की भूमि होगी। आत्मयुद्ध में अपने ही शुद्धात्मा के शस्त्र अस्त्र होंगे, अहिंसा-सत्यादि। इसी आत्मयुद्ध के लिए भगवान् महावीर ने कहा-"युद्ध का क्षण-अवसर दुर्लभ है। हे मेधावी साधक! तू क्षण को जानले।" ... युद्ध कब करना चाहिए? इसके लिए कहा गया-प्रतिक्षण युद्ध करना है, जब तक आसवों की सेना को अध्यात्म संवर की सेना द्वारा खदेड़ न दिया जाए तथा पराजित न कर दिया जाए, तब तक युद्ध करना है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी ही दुर्बलताओंविकृतियों, आत्मगुणों के विकासावरोधकों, आत्मशक्ति कुण्ठित करने वाले दुर्गुणों से युद्ध करना है। ‘युद्ध कैसे करें? इसके लिए भी आचारांग, उत्तराध्ययन आदि में स्थान-स्थान पर भगवान् महावीर ने निर्देश दिया है-जागरूक, सावधान और अप्रमत्त होकर, दृढ़ मनोबल, दृढ़ संकल्प, और परम उत्साह के साथ उन आत्मविकारों से लड़ना है। १. (क) देखें, आचारांग १/५/३/१५९ सूत्र की व्याख्या पृ. १६३ (आ. प्र. समिति, ब्यावर) (ख) “अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बझओ। . . ____ अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए।" । -उत्तरा. ९/३५ २. आत्मा यलो धृति बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्ण्य च॥ -अमरकोश प्राणिवर्ग ३. (क) पचिदियाणि कोहं मांण मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं॥ -उत्तराध्ययन अ. ९ गा. ३६ (ख) अभ्युदय (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण पृ. १५८ . ४. (क) जुधारिहं खलु दुल्लह।" (ख) 'खणं जाणाहि पडिए।' -आचारांग १/५/३/सू. १५९ तया वही १/२/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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