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________________ १०१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) देखा जा सकता है। व्यसनों में, विलासिता में, ठाठबाट में, अनाचार एवं मिथ्याप्रदर्शन में श्रम, समय और धन का कितना अपव्यय होता है यह किसी से छिपा नहीं है। अध्यात्म संवरनिष्ठ साधक प्रचण्ड मनोबल के सहारे ही इन अवांछनीय दुष्कर्मों की बाढ़ को रोक सकता है। और इन असत्कों के निरोध से संचित आत्मशक्ति को आत्मविकास के प्रयोजनों में लगा सकता है। .. . कषायों तथा विकारों के आम्नव छिद्रों को प्रचण्ड मनोबल से ही रोका जा सकता है जिस प्रकार फूटे बर्तन में दूध दुहने से दुधारू गाय पालने का सौभाग्य एवं श्रम निरर्थक चला जाता है, उसी प्रकार जिस तन-मन-वचन के योगों में कषायों एवं कल्मषों के अगणित छिद्र हो रहे हों, तब विविध उपायों से उपार्जित अधिक सम्पत्ति और उपलब्धियों का लाभ क्या होगा? इसलिए इस निरर्थक अपव्यय को रोकने के लिए आत्मशक्ति का मूलाधार प्रचण्ड मनोबल आवश्यक है। तन-मन-वचन एवं मस्तिष्क की तथा धन की क्षमताएँ भले ही किसी के पास स्वल्पमात्रा में हो, पर यदि वह मनोबल के सहारे इन्हें अपव्यय से बचाकर सदुपयोग करने और आत्म-शक्ति का संचय करने में दक्ष हो गया है तो उसका प्रतिफल बलवानों, धनवानों और विद्वानों की सम्मिलित शक्ति से भी अधिक श्रेयस्कर हो सकता है। इसे अध्यात्म संवर का ही चमत्कार कहा जा सकता है। बाह्याभ्यन्तर तप और तितिक्षा (परीषहजय) की अनेक साधनाएँ अध्यात्मसंवर के ही विविध रूप हैं। आत्मशक्ति संचय का तृतीय मूलाधार :विश्वास ___आत्मशक्तिसंचय का तृतीय मूलाधार है-विश्वास। इससे दृढनिश्चय की मनःस्थिति बनती है और शंका, बहम, सन्देह, चंचलता और अस्थिरता के बादल फटने लगते हैं। विश्वास से अनेकाग्रता, व्यग्रता, उद्विग्नता और आर्त-रौद्रध्यान की मनोवृत्ति समाप्त होती है। दृढविश्वास उस अनिश्चितता का अन्त करता है, जो अध्यात्मसंवर के मार्ग में बार-बार रूप बदल कर आती है। दृढविश्वासे से व्यक्ति में पूरे मनोयोग से अध्यात्म संवर की तत्परता और तीव्रता उत्पन्न होती है। - धर्म और दर्शन के क्षेत्र में विभिन्न मत-मतान्तर होते हैं, सभी अपने-अपने प्रबल तर्क-प्रतितर्क प्रस्तुत करते हैं। सामान्य व्यक्ति उस समय उनमें से किसी एक मान्यता को चुनने और अपनाने में असमर्थ हो जाता है। संदग्धि मनःस्थिति में एक को अपनाने पर आगे चलकर मन में ही विक्षोभ, पश्चात्ताप.या संताप उत्पन्न हो जाता है। परन्तु अध्यात्मसंवर के मार्ग पर दृढ़विश्वास हो तो किसी श्रेयस्कर मान्यता को स्वीकृति देने एवं उसकी क्रियान्विति से लाभ उठाने की क्षमता पैदा हो जाती है। १. अखण्ड ज्योति फरवरी १९७७ से, पृ. ४ से ७ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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