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________________ १००६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) और तू चाहे तो अध्यात्म संवर के पथ पर चलकर अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त और स्वाधीन सुखभाजन कर सकता है ।" , इन तथ्यों से स्पष्ट है कि मनुष्य के सुख और दुःख के अथवा उत्थान और पतन के समस्त आधार अपने भीतर ही होते हैं। बाहर तो उसकी प्रतिक्रिया मात्र दृष्टिगोचर होती है। स्पष्ट है कि व्यक्ति की मौलिक विशेषताओं के बीज प्रत्येक आत्मा के अन्तर में दबे पड़े रहते हैं। उनमें से जिन बीजों को विकसित होने का अवसर मिल जाता है, वे सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा के सघनवृक्ष के रूप में फलते-फूलते हैं और उन्हीं के अनुरूप उनके बाह्यजीवन का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। फिर उसे बाह्य-पदार्थ विषय सुखदुःखदाता नहीं प्रतीत होते; न ही बाह्यपदार्थों, इन्द्रिय विषयों या मनोवृत्तियों में सुख का आभास या भ्रम होता है। आत्म निग्रह-अध्यात्मसंवर ही सब दुःखों से मुक्त होने का उपाय इसीलिए भगवान् महावीर ने कर्मों के आनव-बन्ध से होने वाले दुःखों से मुक्त होने के लिए स्पष्ट निर्देश दिया - "हे पौरुषयुक्त पुरुष ! अपनी आत्मा का ही निग्रह (संवर) कर। आत्मनिग्रह (अध्यात्मसंवर) से ही तू सब दुःखों से मुक्त हो सकता है।" यही अध्यात्मसंवर का मूल सूत्र है । इन्द्रियों का निग्रह, मनोनिग्रह, प्राणों का संवर, अथवा हाथ-पैर आदि अवयवों पर संयम, सभी कुछ आत्मनिग्रह या अध्यात्मसंवर पर निर्भर है। यद्यपि इन्द्रियविजय, मनोविजय, प्राणसंवर या अवयव-संयम आदि सब इसी अध्यात्मसंवर में सहायक हैं तथापि आत्मा इन सबका मूल संचालक होने के नाते आत्मा के हाथ में इन सबकी लगाम है, इसलिए आत्मनिग्रह करने से इन सबका निग्रह करना आसान हो जाता है।" सुख का मूल धर्म है पर धर्म से हीन लोग स्वच्छंदाचारी होकर दुःख पाते हैं वस्तुतः सुख का मूल कारण संवर-निर्जरारूप धर्म है। आपदाओं, परेशानियों और कष्टों की आँधी में असहाय, कुण्ठित और निरुपाय व्यक्ति के लिए धर्म ही एकमात्र सहायक, पथप्रदर्शक एवं उद्धारक होता है। सुख और शान्ति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म है। चाणक्य के शब्दों में- "सुख का मूल धर्म है।” १. (क) विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्यं जह कुग्गहीयं । एसोवि धम्मो विसओयवनो हणाई वेयाल इवाविवनो । (ख) "न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, ज से करे अप्पणिया दुरप्पया ॥" -उत्तराध्ययन २०/४४, ४८ - आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ. २ (ग) बंध मोक्खो अज्झत्येव । २. अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७३ से भावांश ग्रहण पृ. ३ ३. "पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा णमोक्खसि । " - आचारांग श्रु. १ अ. ३, उ. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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