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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९९५ शास्त्रज्ञान, तपश्चरण, विविध उपलब्धियाँ-लब्धियाँ एवं पूजा प्रतिष्ठा अनात्मवान् को पचती नहीं। वह अहंकार ममकार से उद्धत और अविनीत होकर दूसरों का तिरस्कार करता है। इस प्रकार वह रागद्वेष-मोह कषायादिवश कर्मों का आम्नव और बन्ध करके अपना संसार बढ़ाता है। जबकि आत्मवान् मन, बुद्धि, चित्त आदि के इन विकल्पों (पर्यायों) से ऊपर उठकर एकमात्र अध्यात्म संवर की दृष्टि रखकर चलता है। इन . उपलब्धियों के लिए वह लालायित नहीं होता और प्राप्त होने पर समभाव से आत्मा को भावित रखता है। अतः अध्यात्म संवर के लिए आत्मवान् होना आवश्यक है। आत्मा और आत्मवान् की पहचान 'परमानन्द पंचविशति' में आत्मा को पहचानने की पद्धति बताई गई है-'जिस प्रकार पाषाणों में सोना, दूध में घी, तिल में तेल छिपा रहता है, उसी प्रकार देह में आत्मा रहता है। अरणि की लकड़ी में जैसे अग्नि शक्तिरूप से रहती है, वैसे ही शरीर में यह आत्मा रहती है।जो इसे जान लेता है, वही पण्डित है। वह ज्ञान रूप आत्मा है, अन्य नहीं, वह परम शान्तिरूप है, भवतारक है। वही आनन्दरूप है, सुखदाता है, वही चैतन्यघन है और वही गुणों का सागर है। इस प्रकार परम आल्हाद-सम्पन्न, राग-द्वेष-रहित, देह में स्थित है यही मैं हूँ, इस प्रकार जो जानता है, वही पण्डित है, आत्मज्ञानी है। भौतिक धन की अपेक्षा आत्मज्ञानरूपी धन को अपनाओ महर्षि याज्ञवल्य की पली मैत्रेयी ने जब अपने पतिदेव से सुना कि "धन सम्पत्ति प्राप्त करके मनुष्य प्रायःअमरत्व को प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि पाया धन सम्पत्ति के १. (क) का अत्तवतो डिपाए सुझाए खमाए णीसिसाए आणुगामियत्ताए भवति त जहा-परिपाए परिपाले सुते तवे लाभे पूया सबारे ... (ख) माणा अजतवओ अहियाए असुभाए अखमाए अणीसिसाए अणणुगामियत्ताए भवन्ति, त जा-परिवार परियाले सुते तवे ला पूयासक्कारे स्थानांग, स्थान हसू.१३,३२ २. (क) पाषाणेषु यथा हेम दुग्धमध्ये यथा पूत। तिलमध्ये पया तेल, यामध्ये तथा शिवः॥२४॥ काठमध्ये पंथा पतिः शक्ति रूपेण तिष्ठति। अपमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः॥२५॥ स एव शान सपोहि स एवाला म चाऽपरः। स एव परमा शान्तिः स एव भवतारकः ॥ ९॥ . . स एव परमानन्दः स एव सुखदायकः। - स एव घन चैतन्ये स एव गुणसागरः॥२०॥ परमानव पंचविशति (ख) "आला वाऽरे मैत्रेयि! द्रष्टव्यः बोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्वा .. आत्मनः खलु दर्शनेन इदं सर्व विदितं भवति ॥" हवारण्यकोपनिषद् (ग) विशोकभावः आनन्दमयो विपश्चित् स्वयं कुतश्चिन विमेति कश्चित्॥ -उपनिषद् (घ) अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७९ से सार-संक्षिप्त, पृ.४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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