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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९९३ स्व-पर का भेदविज्ञान हो जाता है; स्वभाव और विभाव का भी सम्यक् ज्ञान हो जाता है। यह भी अध्यात्मसंवर की प्रक्रिया का एक रूप है। ___ जब व्यक्ति स्व-भाव में रमण करता है, तब स्वतः ही राग, द्वेष मोह आदि पलायित होने लगते हैं। जिस प्रकार सूर्य का जाज्वल्यमान प्रकाश होते ही अन्धकार स्वयं भाग जाता है, उसी प्रकार साधक में आत्मज्ञान-दर्शनरूप सूर्योदय का प्रकाश होते ही अज्ञान-मोहादि का अंधेरा भी भाग जाता है। आचारांग सूत्र के अनुसार उस आत्मदर्शी साधक की धी-अन्धता मिट जाती है।' भगवान् महावीर विशुद्ध आत्मज्ञानी साधक थे, प्रसिद्धि आदि के नहीं भगवान् महावीर ने अपनी साधना में सर्वाधिक स्थान अध्यात्मसंवर को दिया और उसके लिए वे साधना काल में सदैव आत्मध्यान में तथा अपने आपको (आत्मा को) देखने जानने में अधिकाधिक लीन रहे। वे विशुद्ध आत्मज्ञानी थे। आत्मा के शुद्ध अस्तित्व तक पहुँचना ही उन्हें अभीष्ट था। इसके लिए तप, कायोत्सर्ग और ध्यान ही उनके मुख्य आधार थे। परन्तु तप, त्याग और ध्यान से कभी उन्होंने मन में यह विकल्प नहीं उठाया कि मैं अनेक लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त करूँ। चमत्कार दिखाने और आडम्बर करने का, प्रसिद्धि और प्रशंसा का, विकल्प उन्होंने कभी नहीं उठाया। । बहुत से लोग तप, त्याग, योग-साधना आदि से भौतिक सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ पाने में लग जाते हैं। आकाश में उड़ने, पानी पर चलने आदि साधना की सिद्धि में अधिकांश लोग लग जाते है। परन्तु सिद्धियाँ अध्यात्म संवर में आत्म-ज्ञान की साधना में रुकावट डालती है। अतः सिद्धियाँ ज्ञान की साधना में न तो आवश्यक है, और नही उपयोगी। वे साधना में विक्षेप डालने वाली है बल्कि सिद्धियों और उपलब्धियों से १. (क) जैनधर्म : आईत् और अईताएँ से भावांश ग्रहण पृ. ११९-१२० । (ख) आया णे अग्णो सामाइए, ...सामाझ्यस्त आहे, आया णे अज्जो पच्चक्खाणे...... पच्चक्खाणस्स आहे, आया ....सजमे, .. संजमस्स आहे, आया ....संवरे....संवरस्स आहे आया विवेगे .......विवेगस आहे, आयाविउसो.... विउसग्गस्स आहे।" . -भगवतीसूत्र शतक १, उ. ९, सू. २१/४ (ग) "जो जाणइ अरहते, सम्बेहि दवपज्जवेहि। सो जाणइ अप्पाण, मोडो तस्स जाति लयं ॥" -आचार्य कुन्दकुन्द . (घ) मावीर की साधना का रहस्य से मावांश ग्रहण, पृ. ५२ (७) अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पीय सुपहिओ -उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७ (घ) अहवा विणाण-बसण-चरित-विणए तहेव अग्नये जे पवरा होति ते पवरा पुंडरीया उ॥ .. -सूत्रकृ. नियुक्ति (छ) संहिते दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए। -आचारांग १/३/३ सू. १२७ का विवेचन देखें (आ. प्र. स. ब्यावर) पृ. १११-१५६ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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