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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना . ९९१ राग-द्वेष,काम, क्रोध आदि छोड़कर एकमात्र आत्मा की सन्निधि में चला जाता है। फिर उसे मरने का जरा भी दुःख नहीं होता। वह मृत्यु को एक महोत्सव समझता है। मृत्यु उसका प्रिय सखा बन जाता है। वह हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन कर लेता है। इससे दुःख, भय, चिन्तादि जनित कमों के आसव के प्रसंग उसके लिए संवर के प्रसंग बन जाते अध्यात्म संवर का स्वरूप प्रतिसंलीनता-आत्मनिष्ठा ....... __ अध्यात्म-संवर का एक रूप है-प्रतिसंलीनता। आचारांग में बताया गया है कि भगवान् महावीर ध्यान करते समय इन्द्रियों और मन के बाह्य विषयों से (शब्द-रूपों से) अमूर्छित (मोह-राग-द्वेष मुक्त) होकर अपने आप में संलीन हो जाते थे। यही प्रतिसंलीनता का रूप हैं, जो अध्यात्म संवर का अंग है। ऐसी अध्यात्म संवर मूलक प्रतिसंलीनता में बाहर के शब्द, रूप (श्रवण-प्रेक्षण) बन्द करके कान से भीतर की आवाज सुनी जाती है। भीतर की आँख से देखा जाता है। भःमहावीर आत्मिक सौन्दर्य का दर्शन करते थे। अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में कहें तो-व्यक्ति बाहर से अर्थात् बाहरी दुनियाँ से पीठ करके जितना-जितना भीतर की ओर जाता है उतने ही शीघ्र भीतर के नेत्र और कर्ण खुल जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अध्यात्म संवर साधक बाहर के कानों से, आँखों से सुनता-देखता अवश्य है, परन्तु वह आँखों से आत्मगुणों को देखता है, तथा कानों से . भीतर की आवाज सुनता है, यही उसे अध्यात्म संवर की साधना में अभीष्ट है। .. आत्मा ही संवर आदि है : अध्यात्म संवर का एक विशिष्ट रूप । . भगवान् महावीर सतत आत्मध्यान, आत्मविलोकन, आत्मसंवर आदि में तल्लीन रहते थे। - भगवतीसूत्र में एक संवाद आता है। पूछा गया-सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग क्या है ? तब वहाँ वस्तुतत्त्व की दृष्टि से समाधान किया गया है कि, “आत्मा ही सामायिक है, वही सामायिक का प्रयोजन (अर्थ) है, आत्मा ही प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक या व्युत्सर्ग है, और आत्मा ही प्रत्याख्यान आदि का प्रयोजन (अर्थ) है।" . . - तात्पर्य यह है कि जब साधक आत्मा के स्वभाव, स्वरूप, गुण और अस्तित्व को . समझ लेता है, तब उसका आत्मा में या आत्मभावों में स्थिर होना ही सामायिक है, प्रत्याख्यान है, संयम है, संवर है, विवेक है, या व्युत्सर्ग है। - जैसे सूर्य के चारों ओर ग्रह, नक्षत्र आदि परिक्रमा करते हैं, वैसे ही अध्यात्म-संवर के चारों ओर सामायिक प्रत्याख्यान (त्याग), संयम, विवेक, व्युत्सर्ग, For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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