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________________ ९८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) इसी प्रकार 'मूलाचार वृत्ति' में भी कहा गया है-“आत्मा के (स्वभाव-रमणरूप) परिणामों के द्वारा (जिस प्रक्रिया से) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि के परिणामों का निरोध किया जाता है, वह (अध्यात्म) संवर है।" .... आचारांग सूत्र में बताया गया है कि "जो क्रोधदर्शी होता है, वह क्रमशः मानदर्शी, मायादर्शी, लोभदर्शी, प्रेय (राग) दर्शी, द्वेषदर्शी, मोहदर्शी, गर्भदर्शी, जन्मदर्शी, मरणदर्शी, नरकदर्शी, तिर्यञ्चदर्शी और अन्त में दुःखदर्शी होता है।" इस सूत्र का रहस्य भी यही है कि आत्मद्रष्टा साधक क्रोधादि के कारण होने वाले. कर्मों के आनव और बन्ध का द्रष्टा हो जाता है; और उसके परिणामस्वरूप होने वाले नरक तिर्यच आदि गतियों की प्राप्ति और पुनः पुनःजन्ममरणादि से होने वाले दुःखों का दर्शन कर लेता है। उसकी तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि में आत्म बाह्य विभावों में रमण करने के परिणामों का दर्शन चलचित्रवत् हो जाता है। ऐसा आत्मद्रष्टा साधक कर्मों के आदान (कषायों तथा आम्रवों) को अध्यात्मसंवर प्रधान दृष्टि से रोककर कर्मों का भेदन कर पाता है।' वही अध्यात्म संवर का साधक : जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता, न रमता है - जो इस प्रकार अनन्यभाव से एकमात्र स्व-आत्मा के प्रति दृष्टि रखता है, वही सच्चा आत्मद्रष्टा होता है; वही अध्यात्मसंवर को सिद्ध कर सकता है। इसी तथ्य का समर्थन 'आचारांग सूत्र' में किया गया है-"जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नहीं है। इसी प्रकार जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता।" . सर्वत्र सभी अंगों में आत्मा को देखना :आत्मदर्शन - आचार्य योगीन्दु ने इसी सम्यक् आत्मदर्शन का अनुभव व्यक्त करते हुए कहा"मैं जहाँ कहीं भी देखता हूँ, मुझे आत्मा ही दिखाई देती है। शरीर के विशिष्ट अवयवों (इन्द्रियाँ, हाथ, पैर आदि, तथा मन, बुद्धि, चित्त, हृदय और प्राण आदि) को देखता हूँ तो मुझे वहाँ भी शुद्ध आत्मा के ही दर्शन होते हैं।" संवरः।" १. (क) 'जीवस्य मोह-राग-द्वेष परिणाम निरोधो, जीवस्य तन्निमित्त कर्मपरिणाम-निरोधो वा - -पंचास्तिकाय अ. वृ. १०८ (ख) “जीव परिणामेव मिथ्यात्वादि परिणामो निरुध्यते वा स संवरः ।" . _ -मूलाचार १८३४ वृ. - (ग) देखें-जे'कोहदसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी ......तिरियदंसी से दुखदंसी तक (आचारांग १/३/४/१३०) सूत्र की व्याख्या (आगम प्रकाशन समिति व्यावर) • पृष्ठ ११४-११५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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