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________________ .९७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आरव और संवर (६) • सर्वज्ञ वीतराग-महापुरुषों ने एक स्वर से कहा है-अपनी आत्मा को बहिर्मुखी बनाने से रोककर अन्तर्मुखी बनाओ, बाहर के भौतिक और आत्मबाह्य नाशवान पदार्थों के लोभ-मोह से आत्मा को हटाकर अपने अन्दर निहित आत्मगुणों को-अपने स्वरूप को जानने-देखने में लगाओ। उन्होंने नपे-तुले शब्दों में कहा-"अपनी आत्मा का अपनी. 'आत्मा से सम्यक् प्रेक्षण-दर्शन करो।" योगीन्दुदेव आचार्य ने भी आत्मदर्शन को ही मोक्ष का एकमात्र कारण बताया है। अध्यात्मसंवर से ही आत्मदर्शन यथार्थरूप से हो सकता है यद्यपि ओत्मा शरीर, मन, इन्द्रियों आदि के आवरणों से आवृत है, इसलिए इन चर्मचक्षुओं से या द्रव्यमन एवं इन्द्रियों से आत्मा को जाना देखा नहीं जा सकता। समयसार के अनुसार "आत्मप्रज्ञा से ही आत्मा को जाना जा सकता है। जब तक आत्मा का स्वरूप तथा आत्मा में निहित अनन्तज्ञानादि चतुष्टय का सम्यक ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक आत्मा पर एवं आत्मगुणों पर-आवरण डालने वाले, - आत्मा के गुणों को व्यक्त होने देने में बाधक, आत्मशक्ति को कुण्ठित और मोहित करने, वाले एवं आत्मिक सुख में बाधा डालने वाले कर्मों तथा कमों के मिथ्यात्वादि कारणों से आत्मा एवं आत्मगुणों की रक्षा नहीं हो सकती। इसीलिए महापुरुष अध्यात्म संवर के लिए आत्मज्ञान एवं आत्मदर्शन पर अधिकाधिक जोर देते हैं। अध्यात्म संवर का पहला पड़ाव : आत्मदर्शन - आत्मज्ञान एवं आत्मदर्शन अध्यात्म संवर का पहला पड़ाव है। योगीन्दुदेव ने परमात्म प्रकाश में भी यही कहा है-"आत्मा को छोड़कर ज्ञानी पुरुषों को अन्य कोई वस्तु सुन्दर नहीं लगती। इसलिए जो परमार्थ के ज्ञाता हैं; जो वीतराग सहजानन्दरूप अखण्ड आत्मसुख में तन्मय हो गये हैं; उनका विषयवासनाजनित क्षणिक सुखों में मन नहीं लगता। जिसने मरकतमणि प्राप्त कर लिया, उसे काँच के टुकड़ों में क्या प्रयोजन हैं? उसी तरह जिसने ज्ञानमय आत्मा को जान लिया, उसी में चित्त को रमा लिया, उसे परपदार्थों की इच्छा नहीं रहती।"३ .. १. (क) संपिक्खए अप्पगमप्पएणं ....... -दशवैकालिक सूत्र चूलिका २, गा. १२ (ख) अप्पादंसणु एकु परु, अण्णु ण किं पि वियाणि। मोक्खहैं कारण जोइया, णिच्छह एह उ जाणि॥ -योगसार (योगीन्दुदेव) दो. १६ . (ग), अप्पा अप्पउ जइ मुणहि, तो णिव्वाण लहेइ। . पर अप्पा जइ मुणहि तुहुँ तो संसार भमेहि॥ -वही दो. १२ .२.....पण्णए सो धिप्पड अप्पा। .... -समयसार २९६ ३. अप्पां मिल्लिवि णाणियाँ, अण्ण ण सुंदर वत्यु। तेण ण विसयह मणु जाणंतहँ परमत्यु ॥... अप्पा मिल्लिवि णाणमिउ, चित्ति ण लग्गइ अण्णु। . मरगउ जे परियाणियउ तहुँ कच्चे कउ मण्णु? ॥ . -परमात्म प्रकाश अ २ दो. ७७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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