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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास बलप्राण-संवर की साधनाः: ९६७ . वैदिक मनीषियों की दृष्टि में : मन और प्राण (श्वास) के विलय, विजय एवं नियंत्रण का परस्पर सम्बन्ध _ "जहाँ मन विलीन हो जाता है, वहाँ प्राणवायु भी विलीन हो जाता है। जहाँ वायु विलीन हो जाता है, वहाँ मन विलीन हो जाता है।" मन और वायु दोनों समान क्रिया वाले हैं। दोनों दूध और पानी की तरह परस्पर मिले हुए हैं। “इसी कारण जहाँ वायु है, वहाँ मन की प्रवृत्ति होती है और जहाँ मन है, वहाँ वायु की प्रवृत्ति होती है।" ____- आगे इसमें बतलाया है कि- “इन्द्रियों का नाथ (प्रवर्तक) मन है, और मन का प्रवर्तक (नाथ) वायु है और बायु का नाथ (प्रवर्तक) मन का लय है। वह मनोलय नाद के आनित है।" "मन के स्थिर होने पर प्राणवायु स्थिर हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से वीर्य स्थिर हो जाता है। वीर्य के स्थिर होने से शरीर में सत्त्व सदैव स्थिर रहता है।" _ "छान्दोग्योपनिषद्" में कहा गया है-"जैसे डोरी से बंधा हुआ पक्षी घूमघाम कर वापस अपने मूल आश्रय पर ही आ जाता है, उसी प्रकार हे सौम्य ! मन कहीं दूसरी जगह आश्रय न पाने पर घूमधाम कर प्राय काही आश्रय लेता है, क्योंकि मन-प्राण से ही बंधा हुआ है।" 'योगबीज' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-“अनेकों प्रकार के विचारों से मन साधा नहीं जाता। इसलिए प्राणवायु को जीतने से ही मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।" . -:. ', ... .. 'योगरहस्य' भी इसी विचार का समर्थक है-विविध विचारों, तकर्को, अध्ययन, श्रवण आदि से मन स्थिर एवं समाहित नहीं हो पात्रा प्राणवायु के स्थिर करते ही मनःस्थैर्य पर विजय प्राप्त की जा सकती है। १. (क) “मनो यत्र विलीयते, पवनस्तत्र लीयते। - पवनो लीयते यत्र मनस्तत्र विलीयते॥' (ख) “दुग्धाम्बुवत् सम्मिलितावुभौ तौ, तुल्यक्रियौ मानस-मारुतौ हि । यतो मरुत तत्र मनःप्रवृत्तिर्यतो मनस्तत्र मरुत्-प्रवृत्तिः।।... (ग) “इन्द्रियाणां मनो नाथो, मनोनाथस्तु मारुतः। . मारुतस्य लयो नायः, स लयो नादमाश्रित॥॥" (घ) “मनःस्थैर्य स्थिरो वायुस्ततो बिन्दुः स्थिरोभवेत्। बिन्दुस्थैर्यात् सदा सत्त्वं पिण्डस्थैर्य प्रजायते॥-हठयोग-प्रदीपिका ४/२३, २४,२९,२४ (ङ) “सौम्य तन्मनो दिशं दिशं पतित्वाऽन्यत्राऽऽयतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते, प्राणबन्धनं हि सौम्य ! मन इति ॥ १ . -छन्दोग्योपनिन्दा दायर (च) “नानाविधैर्विचारैस्तु न साध्यं जायते मनः। .. तस्मात्तस्य जयः प्रायः प्राणस्य जय एव हिं॥" -योगबीज (छ) “चित्तं न साध्यं विविधैर्विचारैर्वितर्कवादैरपि वेदवादिभिः।.. तस्मात्तु तस्यैव हि केवलं जयः, प्राणो हि विद्येनतुकाश्चिदन्यः॥", -योगरहस्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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