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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९४१ उनका उपहास, अहसयोग, विरोध एवं रोष प्रकट किया, वे विविध रूप से उसकी कोमल और कठोर परीक्षा करने पर भी उद्यत हुए, लोकप्रवाह के विपरीत चलने में खतरे की आशंका देखकर शुभचिन्तक के नाते उस खतरे से बचने का परामर्श दिया; किन्तु इसी प्राणबल के धारक अपने निर्धारित आदर्शवादी पथ से एक इंच भी इधर-उधर नहीं हुए; संकटों और विरोधों को सामना करते हुए वे कठोर अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आगे बढ़ते रहे। उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित कपिलमुनि, नमिराजर्षि, मुनि हरिकेशबल, चित्तमुनि, भृगुपुरोहित पुत्रद्वय, संयतीराजर्षि, मृगापुत्र, समुद्रपालमुनि, जयघोष मुनि तथा राजीमती साध्वी आदि के अध्ययन में उक्त प्राणवानों के ज्वलन्त उदाहरण हैं। इन महान् प्राणबलसम्पन्न साधकों को मिली हुई सफलता उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं, जितनी महत्त्वपूर्ण उनके जीवन की घटनाएँ हैं, जिनमें प्राणबल के आधार पर घन-घोर अन्धकार में उन्होंने प्रकाश जलाया और आंधी-तूफानों के बीच भी उस सिद्धान्त आलोक को बुझने से बचाया। . समस्त आध्यात्मिक सिद्धियों का स्रोत प्राणबल वस्तुतः आध्यात्मिक क्षेत्र की समस्त सिद्धियों का स्रोत यही प्राणबल का चमत्कार है, जिसे सत्साहस एवं अदम्य पुरुषार्थ के रूप में देखा जा सकता है। यही प्राणबल-संवर प्रकारान्तर से आत्मसंयम ही है, जिसमें इन्द्रियों के घोड़ों की लगाम कस कर पकड़नी पड़ती है। दुर्दान्त दैत्यसम मन को वशवर्ती बनाना होता है। अनुस्रोतगमन तो सभी संसारमार्गी आसानी से कर सकते हैं, परन्तु प्रतिस्रोतगमन तो वे ही कर सकते हैं, जो प्राणबल संवर के संसारपारगामी साधक होते हैं। प्राणबल-संवर कितना दुर्गम, कितना सुगम? - प्राणबल-संवर नदी के प्रवाह को रोकने के समान है अथवा नदी के प्रवाह के विपरीत चलने के तुल्य होता है। सरकस के हिंन्न पशुओं से खेल कराने वाले प्रशिक्षक द्वारा दिखाये जाने वाले दुःसाहस से भी प्राणबल संवर बढ़कर है। . इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-"भयंकर संग्राम में लाखों दुर्जयसुभटों पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा भी एकमात्र आत्मविजय करना परमविजय प्रायः सर्वत्र सुविधाओं की पुकार है, शस्त्रास्त्रों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की झंकरा है, ऐसे समय में तप-तितिक्षा का स्वेच्छा से प्राणबल संवर और संकल्प कितना कठिन और १. देखें उत्तराध्ययनका क्रमशः आठवां, नौवां, बारहवां, तेरहवाँ, चौदहवाँ, अठारहवां, उन्नीसवां, .. बीसवां, इक्कीसवां, पच्चीसवां और बाईसवां अध्ययन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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