SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास- बलप्राण- संवर की साधना ९३७ लेता है। निराशा जनक परिस्थितियों में भी उस प्राणवान् को आशा की क्षीण, किन्तु सुनिश्चित किरणें दिखाई देती हैं।" प्राण संकल्परूप में भी व्याख्यात प्रश्नोपनिषद् में प्राण की व्याख्या संकल्परूप में की गई है - "चित्त का जैसा संकल्प होता है, तदनुरूप इस प्राण का संकल्प बन जाता है। महान् आत्मा का जैसा संकल्प होता है, तदनुरूप तेज से युक्त संकल्प प्राण का हो जाता है और जीव के संकल्पानुसार प्राण ही परलोक में ले जाता है।"२ प्राण: विश्वव्यापी समग्र सामर्थ्य, ब्राह्मीशक्ति एवं ब्रह्म प्राण को विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र सामर्थ्य भी कहा जाता है। वह जड़ और चेतन दोनों को प्रभावित करती है। प्राणबल संवर की साधना के लिए उसके उज्ज्वल पक्ष को ही अपनाया जाता है। यद्यपि चेतना की सामर्थ्य उभयपक्षीय है। वह निकृष्टता तथा दुष्टता के क्षेत्र में दुःसाहस बनकर भी कार्य करती है । किन्तु इस निकृष्ट एवं निषिद्धपक्ष को अपनाने से पूर्वकाल में अर्जित प्राणशक्ति का ह्रास ही होता है। इसके विपरीत प्राणबल-संवर रूप विधेयक पक्ष को अपनाने पर प्राणशक्ति उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होकर उसकी अनुगामिनी बन जाती है। अतः निषिद्ध पक्ष को छोड़कर जीवन को उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने वाले सत्संकल्पों को ही उपास्य प्राण मान कर अपनाना चाहिए। जो इस उत्कृष्ट एवं उपास्य प्राण को जितनी मात्रा में उपलब्ध एवं अर्जित कर लेता है, उसी अनुपात में उसे • प्रगतिशीलता एवं आत्मबल का लाभ मिलता है। इन विशेषताओं को देखते हुए उपनिषद्काल के ऋषियों ने इस प्राण को ब्राह्मीशक्ति, ब्रह्मप्रेरणा एवं साक्षात् ब्रह्म कहा है। प्राणबल का ब्रह्मतेज : जीव के सभी अंगों एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में परिदृश्यमान प्राणशक्ति का वही ब्रह्मतेज आँखों में, वाणी में तथा चिन्तन और क्रिया में चमकता है। प्राणवान् व्यक्ति के मस्तिष्क के चारों ओर इसे तेजोवलय (ओरा) या भामण्डल के रूप में देखा जा सकता है। १. (क) वही, मई १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. १६ (ख) "प्राणोब्रह्मेतिहस्माह कोषीतकिः ......... ...। - कोषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् २/१ (ग) “प्राणो भवेत् परब्रह्म, जगत्कारणमव्ययम् । प्राणो भवेत् यथा मंत्रज्ञान - कोशगतोऽपि वा । " - ब्रह्मोपनिषद् २. " यच्चित्तस्तेनैव प्राण आयाति प्राणस्तेजसा युक्तः महात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति । ” - प्रश्नोपनिषद् ३/१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy