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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास- बलप्राण- संवर की साधना ९३५ प्राणशक्ति का महत्त्व एवं फलितार्थ अतः प्राण शब्द का फलितार्थ चेतनाशक्ति होता है। यही प्राणशक्ति इच्छा, ज्ञान, और क्रिया के रूप में जीवधारियों में काम करती है। सचेतन प्राणियों में यही प्राण तत्त्व सक्रियता और सजगता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसी प्राणशक्ति के आधार पर 'प्राणी में विचारणा एवं संवेदना का उद्भव होता है। विविध प्रकार के प्राणियों में प्राणशक्ति के तारतम्य का कारण भी यही है कि इस प्राणशक्ति (जीवनीशक्ति) की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है, वह उतना ही अधिक प्राणवान् कहलाता है।' चेतनाशील प्राणी की यह शक्ति सर्वोपरि होने के कारण “छान्दोग्य उपनिषद्” में उसे “ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ” कहा गया है। 'अथर्ववेद' के प्राणसूक्त में कहा गया है "उस प्राण को नमस्कार है, जिसके वश में सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है; जो सब में समाया हुआ है, जिसमें सब समाये हैं।" 'प्रश्नोपनिषद्' में प्राण को तेजस्वी, तपस्वी बताने हेतु उसका उद्गम केन्द्र सूर्य को माना गया है- "वह प्राण अग्निरूप है, विश्वव्यापी है, और उसका केन्द्र उदीयमान सूर्य है।”२ भौतिक विद्युत् से प्राणिज विद्युत् का प्रभाव बढ़कर है विज्ञानवेत्ता प्राण की व्याख्या प्राणिज विद्युत् के रूप में करते हैं। शरीर में ऊर्जा के रूप में उसका अस्तित्व है। शरीर की आन्तरिक क्रिया नाड़ी समूह के साथ-साथ प्रवाहित होते रहने वाले इसी प्राण ( सचेतन विद्युत् ) प्रवाह द्वारा सम्भव होती है। मस्तिष्क की मशीन अपने-आप में अद्भुत प्रतीत होती है, पर वह स्वसंचालित नहीं है । यदि वह स्वसंचालित होती तो मृतशरीर का मस्तिष्क भी अपना कार्य करते रह सका होता। वह प्राण ही है, जो मस्तिष्क की सचेतन-अचेतन परतों पर छाया हुआ है, और उन्हें अपने निर्धारित कार्यकलाप करते रहने के लिए यथावश्यक सामर्थ्य प्रदान करता है। इसीलिए विज्ञानवेत्ता इसे जीवनी शक्ति एवं मानवीय विद्युत् (ह्यूमन मैग्नेटिज्म एण्ड मैटाबोलिज्म) कहते हैं। प्राणियों में काम करने वाला यह विद्युत् प्रवाह भौतिक विद्युत के समान नहीं है। बादलों में चमकने और कड़कने वाली बिजली अथवा धूप में अनुभव होने वाली गर्मी के समकक्ष भी इसे नहीं माना जा सकता। और न ही यह बिजलीघरों में उत्पन्न की जाने अखण्ड ज्योति, मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ३५-३६ । 9. २. (क) “प्राणो वा व ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च । " - छान्दोग्योपनिषद ५/१/१ (ख) प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥” - अथर्ववेद प्राणसूक्त (ग) “स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुच्यते ।” - प्रश्नोपनिषद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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