SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९२७ डाकू-जिसके लिए मनुष्य को गाजर-मूली की तरह काटने में कोई संकोच न था-एक ही .. वाक्य से प्रभावित हुआ। उसे हतप्रभ होकर अपनी तलवार फैंकनी पड़ी और तथागत के चरणों में उसने आत्मसमर्पण कर दिया। - यह वाणी की ही ऊर्जाशक्ति का प्रभाव था कि.चण्डकौशिक जैसे क्रूर दृष्टिविष सर्प को भगवान् महावीर ने अपने समक्ष नतमस्तक कर दिया। अनेकों राजकुमार श्रेष्ठी, सेनापति, आदि भगवान् महावीर की प्राणशक्ति से अनुप्राणित वाणी से प्रभावित होकर संसार से विरक्त और अनगार एवं अनुगामी श्रमणोपासक बन गये। .: स्वामी दयानन्दजी की वाणी ऊर्जाशक्ति से ओतप्रोत थी, इस कारण विरोधी व्यक्ति भी अनुकूल बन जाते थे। .. यह वाक्शक्ति का ही प्रभाव था कि आधशंकराचार्य जैसे भयानक भगंदर रोग से ग्रस्त व्यक्ति भी अपने छोटे-से जीवन में अपनी वाणी का प्रभाव दिखा गए। कई ग्रन्थों पर भाष्य और विवेचन भी लिखे। वाणी की यह क्षमता स्वामी विवेकानन्द में अद्भुत थी, अमेरिका आदि विदेशों की जनता पर अपनी वाणी की उन्होंने गहरी छाप डाल दी। प्राणवती वाक्शक्ति की क्षमता कैसे प्राप्त हो? वस्तुतः वाणी की शक्ति अद्भुत है। परन्तु वाक्शक्ति की यह क्षमता प्राणऊर्जा की अभिवृद्धि से समुत्पन्न होती है। प्राणशक्ति वाणी के साथ तभी रहती है और विकसित होती है, जब साधक वाणी की शक्ति का अपव्यय या दुर्व्यय न करे। शाप, कटुभाषण आदि से वाणी को बचाए-वाग्गुप्ति की साधना करे। . साधक का चरित्र जब वाक्सवर और वागगुप्ति द्वारा परिष्कृत हो जाता है, तभी वाणी के साथ प्राणशक्ति स्थायी रहती है, उस याकृशक्ति की क्षमता असीम हो जाती है। जिस वाणी के साथ राग-द्वेष, मोह, असत्य आदि विकार नहीं होते वह वाणीआप्तवाक्य रूप हो जाती है। तीर्थंकरों को वाणी की अतिशय क्षमता प्राप्त हो जाती है। ३५ प्रकार के वाणी के अतिशय उन्हें प्राप्त होते हैं। उसका कारण है-वचन बल प्राण का यथार्थ एवं पूर्ण-संवर। . .. वाक्शक्ति का माहात्म्य और चमत्कार ... 'शतपथ ब्राह्मण में वाणी को कामधेनु, अमृत एवं साधक का ब्रह्मास्त्र कहते हुए उसकी महिमा का बखान किया गया है-"यह वाक ही सृष्टि का मूल तत्त्व है। यही मनुष्य लोक का अमृत है। इसके द्वारा उच्चारित शब्दों में अद्भुत शक्तियाँ भरी हैं।" 9. वही. नवम्बर १९७३ से भावांश ग्रहण. प. १३ । २. समवायांग, ३५ वां समवाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy