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________________ ९१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) अनिवार्यता होने के बावजूद भी प्राण-संवर या प्राणनिरोध से क्या लाभ है ? उलटे, प्राणों को निःस्पन्द करने, प्राणों की गति-प्रगति को शिथिल करने एवं प्राण शक्ति का अभिवर्धन करने के बदले उसका निरोध करने से पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय और वैयक्तिक जीवन में अकर्मण्यता और निष्क्रियता, उत्साहहीनता और साहसहीनता तथा व्यावहारिकता में अनेक अड़चनें आ जाएँगी। अतः प्राणसंवर का जीवन में क्या औचित्य है ? प्राण संवर से आत्मा को क्या लाभ है ? इन प्रश्नों पर विचार कर लेना आवश्यक है। प्राणशक्ति का क्षय, अपव्यय एवं अत्युपयोग रोकने हेतु प्राणसंवर आवश्यक यह एक माना हुआ सिद्धान्त है कि किसी भी प्रवृत्ति को अत्यधिक करने से अथवा किसी भी कार्य में दुःसाहसपूर्वक प्रवृत्ति करने से प्राणों की ऊर्जा का अभिवर्धन होने के बजाय क्षय ही होता है। प्राणों की ऊर्जा, शक्ति या विद्युत् को जितना अधिक व्यय या अपव्यय किया जाएगा, मनुष्य उतना ही अधिक प्राण-ऊर्जा से क्षीण या विहीन होता जाएगा, उसकी प्राणशक्ति कुण्ठित, क्षतिग्रस्त एवं दुर्बल होती जाएगी। जैसे-आँखों से अत्यधिक काम लेने से, अतिनिकट से सिनेमा आदि दृश्यों को बार-बार देखने से आँखों की प्राणशक्ति (देखने की शक्ति) कमजोर हो जाती है, आँखों में मोतिया उतर आता है, ठीक से, साफ दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार कानों में अत्यन्त तीव्र आवाज, अत्यधिक शोर शराबे के शब्द, अथवा सशक्त बम आदि फूटने की आवाज से कान के पर्दे बहुधा फट जाते हैं, श्रवण शक्ति कम हो जाती है, उसका कारण भी श्रवणेन्द्रिय की प्राणशक्ति का ह्रास होना है। इसलिए जो लोग प्राणशक्ति का निरोध करके, उसका अपव्ययं होने से बचाते हैं, प्राणशक्ति को संचित करते हैं या संवृत करते हैं वे पूर्वोक्त दशविध प्राणों की शक्ति एवं ऊर्जा में अभिवृद्धि करते हैं तथा अपनी कार्यक्षमता को कर्म के संवर और निर्जरा द्वारा मोक्ष मार्ग में लगाते हैं। जो लोग प्राण संवर या प्राण निरोध के लिए अपनी प्रवृत्ति को अत्यन्त कम करके शान्त, निरवद्य स्थान पर आसन जमाकर धर्म-शुक्लध्यान का अभ्यास करते हैं, वे सच्चे माने में प्राणसंवर कर लेते हैं। वे सम्यग्दर्शनादि रलत्रय की साधना में, परीषहजय में, कषाय विजय में, इन्द्रिय-मनोविजय में अपनी प्राणशक्ति का नियोजन करते हैं. अपनी कार्यक्षमता का शुद्ध धर्म-मार्ग में, संवर निर्जरारूप धर्म में, कर्मक्षय में उपयोग करते हैं। जो लोग अपनी प्राणशक्तियों का इन्द्रियों, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास एवं आयुष्य के रूप में अपव्यय कर डालते हैं, दुर्व्यसनों में फंस कर प्राणशक्ति को नष्ट कर १. महावीर की साधना का रहस्य से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण, पृ. ५८, ५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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