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________________ प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९०५ पांच प्राणों और उपप्राणों का संतुलन बिगड़ने का परिणाम - इस प्रकार पंचप्राण और पंच-उपप्राण का यथास्थान सन्तुलन बना रहे तो जीवन सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग ठीक-काम करते रहेंगे। शरीर स्वस्थ रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा और अन्तःकरण के सद्भाव में सन्तोष और आह्वाद झलकेगा। किन्तु इस क्षेत्र (मन, इन्द्रियों, अंगोपांग आदि से युक्त शरीर) में यदि विसंगति या विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधि-उपाधियों तथा विपतियों और विभीषिकाओं के रूप में उभरती दिखाई देती है। रक्त दूषित हो जाने पर अनेक प्रकार के चर्म रोग, फोड़े-कुंसी, दर्द, सूजन आदि बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। यह प्राण तत्त्व की असन्तुलनता का परिणाम है कि शरीर के अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। मनःक्षेत्र में उत्पन्न प्राणों का असन्तुलन अस्तव्यस्तता, आवेग और उन्माद आदि के रूप में दृष्टिगोचर होता है। भावनाक्षेत्र में विकृत हुई प्राणशक्ति मनुष्य को असुरता, दानवता और पशुता के गर्त में गिरा देती है। प्राण तत्त्व की विकृति से अनेक प्रकार से पतन प्रारम्भ हो जाता है।' .. सामान्य प्राणतत्त्व के संवर की साधना में सावधानी अतः सामान्य प्राणतत्त्व के इस दशविध प्रकर को लक्ष्य में रखकर प्राण-संवर का अभ्यास करना चाहिए। सामान्य प्राणसंवर की साधना में यह ध्यान रखना होगा कि प्राणों के ये विभिन्न केन्द्र दुर्व्यसनों, विकृत खान-पान, विकारी रहन-सहन तथा अत्यधिक एवं अनावश्यक उपयोग से बचाकर शक्ति को सुरक्षित रखकर आध्यात्मिक प्रयोजनों, पांच समिति और तीन गुप्ति के तया परीषहजया, कषाय-विजय और जितेन्द्रियता की साधना में लगाये जाएँ। प्रत्येक शारीरिक मानसिक क्रिया या प्रवृत्ति के समय यंलाचार का पूर्ण ध्यान रखा जाए, तभी आनवों का निरोध होकर प्राण-संवर की साधना द्रुत गति से हो सकेगी। मस्तिष्क : सशक्त प्राणऊर्जा केन्द्र ... योग साधना की दृष्टि से मस्तिष्क सबसे सशक्त प्राण-ऊर्जा केन्द्र है। मस्तिष्क एक ऐसा प्राणशक्ति का केन्द्र है, जहाँ से शरीर के विभिन्न अवयवों को कार्य करने के विवेक, क्षमता, और संचालन का आदेश-निर्देश प्राप्त होता है। मस्तिष्क की प्रौढ़ता और सक्रियता के लिए प्रायः बीस वॉल्ट विद्युत् शक्ति (प्राण ऊर्जा) की अपेक्षा रहती है। यह जैविक विद्युत् या प्राण ऊर्जा उत्पन्न होती है तैजस के द्वारा-ऊष्मा के द्वारा मस्तिष्क एक प्रकार का सूक्ष्म डायनेमो है। कुछ कोशाणु विशेष रूप से इससे प्राण-विद्युत् (तैजस) उत्पन्न करते रहते हैं। १. अखण्ड ज्योति, मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ४५ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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