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________________ ५५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) परन्तु तीर्थंकरों या केवलज्ञानियों की प्रवृत्ति कषाय-रहित राग-द्वेष रहित होती है, इसलिए उनमें अशुभ कर्मों के आने का तो कोई प्रश्न ही नहीं, शुभ कर्म भी (प्रवृत्ति के कारण) आते हैं, लेकिन वे केवल टकराकर उसी समय किसी प्रकार का फल दिये बिना ही दूसरे समय (सूक्ष्म क्षण) में ही झड़ जाते हैं। कर्मों के इस प्रकार के आगमन को 'ईपिथिक आसव' कहा जाता है। शेष दोनों प्रकार के व्यक्तियों के जीवन में कषाय भी है, राग-द्वेष भी है, परन्तु इन... दोनों में से साधक कोटि के व्यक्ति में कषाय मन्द है, राग-द्वेष भी अल्पांश में है, इसलिए उसके साम्परायिक आस्रव के आने पर भी शुभ कर्मों का आगमन होता है, अशुभ कमों . . . का नहीं। परन्तु जो व्यक्ति कषाय और राग द्वेष में आकण्ठ डूबा हुआ है, जिसे आत्मस्वरूप का कुछ भी भान नहीं है, और न ही अवांछनीय कर्मों को वापस लौटाने जितना तन-मन-वचन का आत्मबल है, न ही अस्वीकृति की दृढ़ता है, वहाँ साम्परायिक आसव होते हुए भी अशुभ कर्मों का आगमन होना स्वाभाविक है। कर्मों के सामान्य आस्रव की प्रक्रिया और लक्षण यों तो संसार के प्रत्येक जीव की आत्मा अपने स्वभाव की अपेक्षा से शद्ध है; प्रभास्वर है और अपने ही परिणामों से स्व-संचालित है। वह निमित्त-निरपेक्ष है। किन्तु वीतराग केवली के सिवाय शेष सांसारिक जीव के प्रत्येक आत्मप्रदेश के साथ रागद्वेष-मिश्रित है। इस कारण स्वभाव से शुद्ध और प्रकाशमान चैतन्य-स्वरूप आत्मा अपने असंख्य आत्मप्रदेशों (अविभागी अवयवों) के साथ राग-द्वेष के योग से मलिन होता रहता है। आत्मा के साथ राग-द्वेष का यह योग कब से है ? इसका आदि सिरा ज्ञात नहीं है। जैनदर्शन इसे प्रवाहरूप से अनादि मानता है। संसारी जीव ज्यों ही मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करते समय राग-द्वेष से युक्त कर लेता है; समझ लो त्यों ही उसने आकाश में, परिपार्श्व में व्याप्त कर्मप्रायोग्य पुद्गलों को प्रवेश के लिए आमंत्रित कर लिया। इसी प्रकार से शरीरधारी जीवों की राग-द्वेष युक्त परिणामधारा ही नये-नये कर्म-पुद्गल परमाणुओं को अपनी ढिलमिल नीति या दुर्बलता व प्रमाद के कारण आकृष्ट करती रहती है। वही उसे अपने आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट होने का न्यौता देती है। सांसारिक जीव की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति के साथ लिपटी हुई राग-द्वेष-कषायाविष्ट परिणामधारा ही कर्मपरमाणुओं को आकृष्ट एवं आमंत्रित करने का हेतु बनती है। जैनकर्मविज्ञान की भाषा में कर्मपरमाणुओं को आकृष्ट करने की इसी मानसिकवाचिक-कायिक क्रिया (रागादियुक्त प्रवृत्ति) को आसव कहा गया है।' -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/४/१६ १. (क) पुण्य-पापागमद्वार-लक्षणः आम्रवः । (ख) जैनयोग से भावांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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