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________________ ८४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) नहीं रहता तो सर्वप्रथम राख से ढकी हुई आग के समान शान्त होता है, तत्पश्चात् पूर्णरूप से उसका विलय (क्षय) हो जाता है।' परिपूर्ण शुद्ध मनःसंवर का रूप ऐसी स्थिति में वात-विहीन स्थान में रखा हुआ दीपक जैसे अविच्छिन्न रूप से प्रकाशित रहता है, उसकी लौ बिलकुल चंचल नहीं होती, इसी प्रकार मनोवृत्तियों की चंचलतारूपी वात का अभाव हो जाने पर आत्मा में कर्ममल के आवरण से रहित शुद्ध और परिपूर्ण, निराबाध तथा अविच्छिन्न आत्मज्ञान प्रकाशित होता है।.. यह है परिपूर्ण एवं शुद्ध मनःसंवर का रूप।२ जैनदृष्टि से मनोजय, मनोनिग्रह, तथा मनोविलय, मनोवशीकरण आदि के रूप में मनःसंवर की जो परिपूर्ण एवं शुद्ध अवस्था बताई गई है, वहाँ तक पहुँचना सहज नहीं है। उसके लिए प्रत्येक साधक को स्पष्ट रूप से समझना और स्वीकार करना चाहिए कि मनःसंयम या मनोवशीकरण या मनोनिग्रह के रूप में मनःसंवर कोई जादू नहीं है कि डंडा घुमाया या मंत्र पढ़ा कि मन संयत या संवृत हो गया। जो लोग जल्दबाज हैं, और जादूटोने आदि के किसी कौशल से मन को वश करने की फिराक में हैं, अथवा जो किसी गुरु, देवता या ओझा आदि से अपने मन के वशीकरण की अपेक्षा रखते हैं, वे भी धोखे में हैं। प्रत्येक साधक को यह समझ लेना चाहिए कि मन एक नाजुक यंत्र है, बड़ी धृति एवं सावधानी पूर्वक उसका तथा उसकी शक्तियों का उपयोग एवं प्रयोग करना होगा। साथ ही मनःसंवर के जितने भी साधक कारण हैं, उनकी साधना भी विधिपूर्वक स्वयं को ही करनी होगी, बाधक कारणों से बचने के लिए भी स्वयं को ही तत्पर एवं सतर्क रहना होगा। अपने मनःसंवर का समूचा कार्य स्वयं ही करना होगा। दूसरे से हर्गिज नहीं हो सकेगा। ___ 'राजयोग' में विवेकानन्द मनःसंयम (मनःसंवर) की कठिनता का वर्णन करते हुए कहते हैं- मन को संयत (संवृत) करना कितना कठिन है, इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त वानर से दी गई है। कहीं एक वानर था, स्वभावतःचंचल, लेकिन उतने से सन्तुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया।....... किसी को बिच्छू डंक मार दे तो वह दिनभर इधर-उधर कितना तड़पता रहता है ! सो उस प्रमत्त अवस्था पर बिच्छू का डंक ! १. (क) योगशास्त्र प्रकाश १२, श्लोक ३३-३५ (ख) जैन, बौद्ध, गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डा. सागरमल जैन) पृ. ४९३ १. योगशास्त्र, प्रकाश १२, श्लोक ३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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