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________________ ८४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) समान श्रुतरूपी रस्सियों से बाँधकर समता और ( संवर निर्जरारूप अथवा सम्यग् - दर्शनादि रत्नत्रयरूप) धर्म की शिक्षा से इसका निग्रह करता हूँ।' मनःसंवर का परमार्थ : मन को राग-द्वेष से विमुक्त-तटस्थ रखना यहाँ मन को समत्व में स्थिर रखने का अर्थ है-मनोवृत्तियों को विषयों के प्रति न रागयुक्त बनाए, न द्वेषयुक्त बनाये। मन को संकल्प-विकल्पों से व्याकुल न होने दे। प्रत्येक स्थिति में उसे मध्यस्थ या तटस्थ बनाए रखे। धर्मशिक्षण का अर्थ भी मन को संवरनिर्जरारूप या ज्ञान-दर्शन- चारित्र-तप-रूप धर्म में - धर्मवृत्तियों में लगाना और अभ्यास कराना है। गीता की भाषा में मनोनिग्रह का मार्ग भी हिंसादि अनर्थकर आस्रव बंन्ध के मार्ग को रोककर विषयभोगों की अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अनासक्ति का अभ्यास कराना और विषयों से विरक्त करना है। योगदर्शन में भी इसी आशय से कहा गया है- “अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।" प्रत्येक स्थिति में मन को तटस्थ, उदासीन एवं समत्व में स्थिर रखना ही मन संवर है इसीलिए जैन परम्परा में मनोनिग्रह का अर्थ भी विषयों में प्रवृत्त होते हुए मन को बलात् रोकना नहीं है, अपितु उसे राग-द्वेषादि वृत्तियों से दूर, समभाव में स्थिर रखना है। आचार्य हेमचन्द्र ने मनोनिरोधरूप मनःसंवर का वास्तविक उपाय बताते हुए योगशास्त्र में कहा है-मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए; क्योंकि बलात् मनोनिरोध से दबा हुआ मन और अधिक तेजी से उस ओर उछल-कूद मचाने और दौड़ने लगता है। बल्कि उसे रोकने से यानी उदासीन और तटस्थ रहने से अर्थात् विषयों के प्रति राग-द्वेष न करके मध्यस्थ रहने से वह स्वतः ही शान्त हो जाता है। जैसे-मदोन्मत्त हाथी को सहसा रोका जाता है तो वह उस ओर अधिक तीव्रता से प्रेरित होता है, किन्तु उसे न रोका जाए तो वह अपने अभीष्ट विषय को प्राप्त करके शान्त हो जाता है। यही स्थिति मन की है । ३ अतः मनः संवर सही माने में तभी हो सकता है, जब साधक अपने मन को प्रत्येक स्थिति में तटस्थ एवं उदासीन रखे, विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न न होने दे, वृत्तियों के प्रवाह में न बहकर समत्व में स्थिर रहे । " 9. उत्तराध्ययन अ. २३, गा. ५५,५६,५८ २. अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः । ३. योगशास्त्र, प्रकाश १२, श्लोक २७, २८, २९ ४. जैन, बौद्ध, गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ४९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only -योगदर्शन www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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