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________________ 'मनसे' को महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८२५ इतना ही नहीं, आवेश में आकर हानिकारक गतिविधियाँ अपना लेने पर पद-पद पर ठोकरें खाने और विषादमग्न रहने का भी खतरा बना रहता है। मनःस्थिति को सुधारने के लिए मन को एकाग्र और स्थिर करने से अपने चिन्तन को परिष्कृत और क्रियाकलाप को व्यवस्थित बनाया जा सकता है। मनःस्थिति सुधर जाने पर परिस्थितियों की प्रतिकूलताएँ बहुत हद तक स्वतः ही दूर हो जाएँगी। जो बची रहेंगी, उनसे सूझबूझ और साहस के सहारे निपट लेना कुछ अधिक कठिन नहीं होगा। प्रतिकूलताओं से डरने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त है कि उनसे निपटने के कौशल को उभारा जाए। न तो महत्वाकांक्षाओं की आग में जला जाए और न ही आशंकाओं और प्रतिकूलताओं से मन को भयभीत बनाया जाए। ऐसी मनःस्थिति मनःसंवर या मनोनिरोध का कौशल अपनाकर मन को संतुलित रखने से बन सकती है।' मनोनिरोध न होने पर.. ******** मनःसंयम या मनोनिरोध न होने पर चिन्ता, भय, निराशा, आशंका जैसी तन-मन को अर्धमूर्च्छित कर देने वाली क्रुकल्पनाएँ मनुष्य की प्रगति और प्रसन्नता को बुरी तरह नष्ट कर देती हैं। इसी प्रकार क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, कामुकता, लोभ और ठगी तथा छलकपट जैसी आक्रामक दुर्भावनाएँ भी मनुष्य को आतुर, उद्विग्न, भावान्ध, आवेशग्रस्त और बेचैन बनाकर ऐसे कुकृत्य करने के लिए विवश कर सकती हैं, जिनके लिए चिरकाल तक पश्चात्ताप करना पड़ता है। आवेश और अवसाद दोनों ही मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ने वाले हैं। आवेश या आवेग की तुलना हाईब्लड प्रेसर से, और अवसाद की तुलना लो ब्लडप्रेशर से की जा सकती है। एक से आदमी का मस्तक तप जाता है, वह तनावग्रस्त होकर सिर धुनता और पैर पीटता है, तथा दूसरे से वह ठंडा पड़ जाता है, हृदय की गति अवरुद्ध होने लग जाती है। अति गर्मी झुलसा कर प्राण हरण कर लेती है और अति ठण्ड से भी आदमी का खून जम जाता है। इन दोनों की तरह ही दोनों प्रकार के मानसिक अतिक्रमणों के दुष्परिणाम अलगअलग ढंग के होते हुए भी हानि की दृष्टि से दोनों एक दूसरे से बढ़कर हैं। ये दोनों ही अवांछनीय मनःस्थितियाँ हैं; जो मनुष्य के मानस-समुद्र को अशान्त, उद्विग्न एवं तनाव - ग्रस्त अथवा अस्त-व्यस्त तथा यथार्थ चिन्तन के लिए अनुपयुक्त बना देती हैं। शान्त मानससमुद्र ही जीवरूपी नाविक और शरीररूपी नौका के लिए सुखद एवं हितकर होता है। + आलस्य, प्रमाद, भय, सन्देह, अनुत्साह, निराशा, चिन्ता जैसी बुरी मानसिक मनुष्य की शक्तियों का बहुत बड़ा अंश क्षत-विक्षत कर देती हैं, और उसे १. अखण्डज्योति (अगस्त १९७८/२५-२६ पृ.) से भावांश ग्रहण : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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