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________________ | मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य कर्मावृत आत्मा के चेतना-नेत्र सम्यक् पदार्थज्ञान के लिए मन उपनेत्र हैं यदि किसी मनुष्य के नेत्र में यथार्थरूप से देखने की शक्ति क्षीण हो जाती है, अथवा उसे दूर से या निकट से कोई पदार्थ या अक्षर साफ-साफ नहीं दिखाई देते, तो उसे अपनी आँखों पर चश्मा लगाना पड़ता है। चश्मे की सहायता से वह पदार्थ को यथार्थरूप से जान-देख सकता है। अन्यथा, किसी भी पदार्थ का यथार्थरूप से जान-देख पाना उसके लिए कठिन होता है। ___इसी प्रकार जिन कर्मबद्ध आत्माओं के सम्यक्ज्ञान-दर्शन-आनन्द-शक्तिरूप निजीगण अनावृत और अखण्ड नहीं है, जिनकी चेतना कर्मावरण से आवृत है, कुण्ठित है, अपर्ण और खण्डित है, वे आत्मारूपी नेत्र भी अपनी ज्ञानादि चेतना कर्मों के आवरण से आवृत होने के कारण पदार्थों और विषयों का यथार्थरूप से डायरेक्ट ज्ञान नहीं कर सकते, वे मनरूपी उपनेत्र (चश्मे) की सहायता से पदार्थों और विषयों का ज्ञान कर पाते . आवृत चेतना के प्रकट होने का सशक्त माध्यम : मन ___ तात्पर्य यह है कि सांसारिक जीवों की चेतना पूर्णतया अनावृत नहीं है। इसलिए वह सर्वात्मना प्रकट नहीं होती। उसकी कुछ किरणें ही प्रकट होती हैं। वे भी अपने आप नहीं प्रकट होतीं। आवृत चेतना के प्रकट होने का सशक्त माध्यम मन है। मन एक ऐसा द्वार है, जिसके जरिये प्रकट होने वाली मानसिक चेतना में त्रैकालिक ज्ञान का सामर्थ्य होता है। वह वर्तमान को जानती है, भूतकालिक घटना का स्मरण करती है और भविष्य के विषय में तदनुरूप चिन्तन कर सकती है। इन्द्रियों के द्वारा जो वर्तमानग्राही ज्ञान होता है, वही मन में प्रतिबिम्बित होता है। मन उसी वर्तमानकालिक ज्ञान का मनन-चिन्तन और विश्लेषण करता है। १. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १ (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण पृ. ४८४ २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. १११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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