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________________ ७९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) को समझने में और उसका आनन्द प्राप्त करने के लिए ज्ञानचेतना की अविच्छिन्न धाराजीवन में होनी आवश्यक है, ताकि रागद्वेष की या कषायों की संवेदना की छाया इन्द्रियों द्वारा गृहीत पदार्थों पर न पड़े। तभी इन्द्रियों से आनव के स्थान में साधक संवर की साधना कर सकेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो इन्द्रियों से सम्यक् अर्थबोध के लिए राग-द्वेष से रहित ज्ञानचक्षु - विवेकदृष्टि अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा की आवश्यकता है। यही इन्द्रियसंवर का मुख्य उद्देश्य है। इन्द्रिय द्वारों पर बैठकर साधक पहरेदारी रखे फलितार्थ यह है कि इन्द्रियों के द्वार से जो-जो पदार्थों और विषयों का ग्रहण और ज्ञान होता है, वहाँ साधक के द्वारा पहरेदारी की जानी चाहिए, ताकि बाहर से अवांछनीय अथवा कर्मानव में फंसाने वाला विषय न आए। मानलो, कोई अनिष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आ जाए, इष्ट शब्दादि न आए तो भी इन्द्रियों के द्वार पर बैठा : हुआ जागरूक साधक शीघ्र ही द्वेष या राग, घृणा या आसक्ति, अप्रीति या प्रीति की संवेदना भावना या दृष्टि का तार उसके साथ न जोड़ दे। इसीलिए 'मरणसमाधि प्रकीर्णक' में कहा गया है- ज्ञान की लगाम से नियंत्रित होने पर इन्द्रियाँ भी उसी प्रकार लाभकारी हो जाती हैं, जिस प्रकार लगाम से नियंत्रित तेज दौड़ने वाला घोड़ा ।' इन्द्रियों का वशीकरण : इन्द्रियों और मन के द्वार पर पहरा देने सें यह भी अनुभूत सत्य है कि यदि पांचों इन्द्रियों को मन और अन्तरात्मा विषयों में प्रवृत्त होने की खुली छूट दे दें तो वे प्रायः अपने अभीष्ट विषयों को ही बार-बार ग्रहण करने और उनमें सुख की कल्पना करने में अभ्यस्त हो जाती हैं, फिर आम्नवप्रिय मानव भी आत्मा के लिए अनिष्ट उन्हीं आवांछनीय विषय सुखों को आसक्ति पूर्वक अपना कर उन्हीं में रमण करता है। साधक की इस असावधानी के कारण आँखें रूप की प्यासी रहती हैं, जीभ रस की पिपासा में आकुल रहती है, नासिका सुगन्ध को पसंद करती है। कान मधुर ध्वनि सुनने के इच्छुक रहते हैं। जहाँ कहीं भी मधुर शब्द, संगीत या वाद्य हो रहा हो, मन उधर ही चल पड़ता है । आँखें वस्तुओं का सौन्दर्य देखते ही रम जाना चाहती हैं, फिर वह सौन्दर्य वस्तुओं का हो, स्थान का हो, या नर-नारियों के शरीर का हो। स्पर्शेन्द्रिय स्पर्श सुख की अनुभूति करते ही पुलकित हो उठती है। व्यक्ति जितना ही इन विषय-सुखों में रमण करता है, उतना ही इन्द्रियों के वशीभूत होता जाता है। इन्द्रिय-सुखों में आसक्त व्यक्ति का तन-मन भी दुर्बल, क्षीण, निस्तेज होता जाता है। इन्द्रिय-संवर से ऐसा व्यक्ति कोसों दूर हो जाता है। 9. हुति गुण कारगाई सूयरज्जूहिं घणियं नियमियाइं । नियगाणि इंदियाई, जइणो तुरंगा इव सुदंता ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - मरण समाधि ६२२ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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