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७७४ कर्म-विज्ञान भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) हैं। भावेन्द्रियाँ शरीर पर प्रत्यक्ष (प्रकट रूप) में दिखाई नहीं देतीं। जैसे-विद्युत् का बाह्य रूप प्रकाश ताप आदि दिखाई देता है, किन्तु उसको प्रेरित करने वाली आन्तरिक शक्ति (Power) नहीं दिखाई देती। इसी प्रकार इन्द्रियों का बाह्य रूप, रचना, आकृति आदि के रूप में दिखाई देता है, किन्तु उनकी आन्तरिक शक्ति तथा बोधादि रूप (व्यापार) प्रवृत्ति, प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती।
भावेन्द्रिय के भी दो प्रकार हैं-लब्धि और उपयोग। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम लब्धि रूप, भावेन्द्रिय है। जिसके सानिध्य से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के प्रति व्यापृत (प्रवृत्त) होता है, ऐसा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पत्र होने वाला .आत्मा का परिणाम (ज्ञानादि व्यापार) उपयोग रूप भावेन्द्रिय हैं।' ..
.: द्रव्येन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सम्पर्क करके भावेन्द्रियों को प्रभावित करती हैं। और भावेन्द्रियाँ जीवात्मा की शक्ति (लब्धिविशेष) होने के कारण चेतना (आत्मा) को प्रभावित करती हैं। . . १५ . पूर्व-पूर्व इन्द्रिय प्राप्त होने पर उत्तर-उत्तर इन्द्रिय की प्राप्ति
. द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के पूर्वोक्त स्वरूप को देखते हुए कहा जा सकता है कि भावेन्द्रियाँ कारण रूप है और द्रव्येन्द्रियाँ कार्यरूप हैं।
यही कारण है कि लब्धि-इन्द्रिय होने पर ही निवृत्ति-इन्द्रिय सम्भव है। तथा निवृत्ति-इन्द्रिय के बिना उपकरण इन्द्रिय भी नहीं होती। तात्पर्य यह है कि लब्धि प्राप्त होने पर निवृत्ति, निवृत्ति प्राप्त होने पर उपकरण, तथा निवृत्ति और उपकरण प्राप्त होने पर उपयोग सम्भव है। पूर्व-पूर्व इन्द्रिय प्राप्त होने पर उत्तर-उत्तर इन्द्रिय की प्राप्ति होती
पांचों इन्द्रियों के पृथक्-पृथक् कुल मिलाकर २३ विषय . . - इन पांचों इन्द्रियों के अपने अपने पृथक्-पृथक् विषय हैं, जिनमें ये प्रवृत्त होती हैं। संक्षेप में, श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द-संवेदन है, चक्षुरिन्द्रिय का रूप-संवेदन है, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध-संवेदन है, रसनेन्द्रिय का विषय रसास्वादन है और स्पर्शेन्द्रिय का विषय स्पर्शानुभूति है। यों पांचों इन्द्रियों के कुल २३ विषय हैं, जिनका वे ग्रहण, बोध एवं उपभोग (सेवन) करती हैं।
१. (क) "निवृत्त्युपकरणं द्रव्येन्द्रियम्, लब्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।”-तत्त्वार्थसूत्र २/१७,१८,१९, (ख) सर्वार्थसिद्धि २/१७/१७५ .
.. (ग) तत्त्वार्थसार २/४०-४६
(घ) जीवाभिगमसूत्र सटीक पृ. ७४ ।। २. देखें--तत्त्वार्यसूत्र विवेचन (पं. सुखलालजी संघवी) वाराणसी १९७६
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