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________________ ७६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) . ___अधिक शोर से थकान, उदासी और ऊब पैदा होती है, विचारों की श्रृंखला टूट जाती है। मस्तिष्क की विद्युत तरंगों में गड़बड़ी होने लगती है। इससे उत्तेजनापूर्ण तथा वाक्-कलहयुक्त जीवन की ओर झुकाव बढ़ सकता है, तथा हिंसा की भावना बल पकड़ सकती है। अत्यधिक शोर का हमारे शरीरतंत्र पर तथा कई हारमोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। पिच्युटरी ग्रन्थी, एड्रनिल कोर्टेक्स, थायरायड ग्रन्थी तथा प्रजनन ग्रन्थियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हृदयरोग तथा मस्तिष्क की शक्ति का ह्रास इसी अत्यधिक शोर की देन है। ___इस दृष्टि से सोचे तो शोर भी पर्यावरण प्रदूषण का एक कारण है। शोर से होने वाले प्रदूषण को ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं। इससे मनुष्य की शान्ति, सन्तुष्टि, धैर्य और स्थिरता भंग हो गई है। अधिकांश लोग आज शान्त, एकान्त वातावरण में रहना चाहते हैं, परन्तु उन्हें इस ध्वनि प्रदूषण से छुटकारा नहीं मिलता। उनका एकान्त और मौन भंग हो गया, नींद हराम हो गई, स्वास्थ्य चौपट हो गया। इसलिए आज स्वयं वाणी पर रोक लगाने के साथ-साथ इन अतिशय तीव्र कोलाहलों से मुक्ति पाना आवश्यक है। बोलते-बोलते मनुष्य ने ऐसी-ऐसी ध्वनियों का आविष्कार कर लिया कि वे स्वयं मानव के लिए अतिघातक बन गई हैं। कानों से श्रवणयोग्य ध्वनि कितनी डेसीबेल? - प्रसिद्ध वैज्ञानिक ग्राहमबेल ने शोर का अनुसन्धान करके ध्वनि को मापने की पद्धति का आविष्कार किया। शोर नापने की इकाई का नाम ग्राहमबेल के नाम पर 'बेल' रखा है। बेल का दशमांश है-डेसीबेल। जहाँ से ध्वनि सनाई पड़ने लगती है, उसे कहते हैं-शून्य डेसीबेल। सामान्यतया मानव के प्रशान्त वातावरण में भी २५ डेसीबेल घड़ी टिकटिक करती है, कोई धीरे से बोलता है तो उससे मनुष्य की निद्रा में कोई बाधा नहीं पहँचती। पत्तों की मर्मर ध्वनि या हल्की-सी हलचल लगभग २५ डेसीबेल होता है। अतः वाक्सवर की दृष्टि से हमारी जीवनयात्रा ध्वनि से अध्वनि, शब्द से अशब्द तथा स्वर से अस्वर की ओर गति-प्रगति करनी चाहिए।' वाक्संवर की दिशा में जाने के लिए कुछ संयम सूत्र कोलाहल की इस पर्यावरण प्रदूषणता एवं जन-व्याकुलता के कारण वर्तमान युग में मीन का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है। क्या समाज, क्या परिवार, क्या राष्ट्र, क्या राजनीति, क्या धर्म सम्प्रदाय सभी क्षेत्रों में सर्वत्र अत्यधिक बोलने की बीमारी लग गई १. (क) अखण्ड ज्योति फरवरी १९७७ पृ. १८ २. (ख) महावीर की साधना का रहस्य से किंचित् भावांश ग्रहण पृ. १०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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