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________________ ७४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) रहा। एक पक्षी ने उसकी हथेली पर अपना घोंसला भी बना लिया और अण्डे भी दे दिये। उक्त योगी का कहना था कि इससे उसे कोई कष्ट नहीं हुआ। यद्यपि ऐसी यौगिक साधनाओं के पीछे कोई दर्शन या विशिष्ट उद्देश्य नहीं है। इनका तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे तो तितिक्षा पूर्ण अभ्यास के द्वारा शरीर से होने वाले कष्टों की अनुभूति से स्वयं को बचा सकता है।' परन्तु भगवान् महावीर ने तो कायसंवर की साधना के उद्देश्य से आत्मा का ही चिन्तन किया था, शरीर पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। उन्हें न तो इस प्रकार की उपलब्धि या सिद्धि प्राप्त करके, लोगों में अपना प्रदर्शन करना था, न ही प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने ऐसा किया था। कायसंवर की साधना की परिपक्वता के लिए कायगुप्ति उन्होंने कायसंवर की साधना को परिपक्व करने के लिए कायगुप्ति का पालन करने का निर्देश दिया। 'कायगुप्ति के द्वारा जीव क्या प्राप्त करता है ?', यह पूछे जाने पर उन्होंने कहा-'कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त होता है, और संवर से पापानव का निरोध कर देता है। कायसंवर में कायगुप्ति के द्वारा स्थूल शरीर का द्वार बन्द करना अभीष्ट कायसंवर में काया के द्वार को बन्द करना अनिवार्य है। अन्यथा जैसे गृह-द्वार खुला रहने पर कोई भी अच्छा या बुरा आदमी प्रवेश कर सकता है। हवा के साथ धूल, कचरा और गन्दगी भी आ सकती है, वैसे ही काया का द्वार खुला रहने पर पुण्य-आम्रव या पापानव कोई भी प्रविष्ट हो सकता है। स्थूलशरीर के माध्यम से प्रविष्ट होने वाले पुण्य या पाप दोनों ही कर्मशरीर को पोषण देने वाले टॉनिक हैं। उसको तो यही खुराक चाहिए। इसीलिए भ. महावीर ने कायसंवर के लिए कायगुप्ति का आश्रय लिया। उन्होंने काया का आम्रवद्वार बन्द कर लिया, एकमात्र आत्मध्यान में लीन रहे; वे देहाध्यास से ऊपर उठकर एकमात्र आत्मकेन्द्रित हो गए, जो कि कायगुप्ति की साधना का मुख्य उपाय है। उन्होंने बताया कि काया का द्वार बन्द न करने से पापासव का पोषक परिणाम भी आएगा और पुण्यासव का पोषक भी। दोनों ही कर्मशरीर की पुष्टि और वृद्धि करने १. वही, नवम्बर १९७३ में प्रकाशित लेख से, पृ. ५५ २. “कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ ॥" -उत्तराध्ययन सूत्र २९/५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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