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________________ ७३२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) ही नहीं, हमारे मन, वाणी, इन्द्रिय, प्राण आदि की सभी शक्तियों का केन्द्र शरीर है।. आत्मा की शक्ति, ज्ञान, आनन्द आदि की अभिव्यक्ति इसी के माध्यम से होती है। संवरसाधना की दृष्टि काय - अनुप्रेक्षण : किस-किस आधार पर ? हमें यहाँ संवर-साधना की दृष्टि से शरीर का विभिन्न पहलुओं से प्रेक्षणअनुप्रेक्षण करना है, विशेषतः यही देखना है कि शरीर के द्वार से कर्म कैसे-कैसे आते हैं. और कैसे-कैसे उन्हें आने से रोका जा सकता है ? अर्थात् आनव और संवर की दृष्टि से यहाँ शरीर पर हमें अपनी अनुभूति के बल पर प्रेक्षण करना है, शास्त्रीयं व्याख्याओं के. आधार पर अनुप्रेक्षण करना है और विभिन्न युक्तियों के आश्रय से, अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में शरीर का आध्यात्मिक दृष्टि से पर्यवेक्षण करना है। अतः युक्ति, सूक्ति और अनुभूति के बल पर हम शरीर-संवर पर चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करें तो अवश्य ही शरीर-संवर के परमार्थ को हृदयंगम कर सकते हैं। सभी क्रियाओं का मूल आधार शरीर जितनी भी क्रियाएँ हैं वे शरीर के द्वारा होती हैं। यदि शरीर में से प्राण निकल गये हों अथवा वह निष्प्रकम्प हो गया है तो उससे कोई भी क्रिया नहीं होगी । मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, वाणी प्रभृति किसी के भी द्वारा क्रिया हो उनका मूल आधार शरीर ही है। शरीर के अभाव में उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यह सहज ही प्रश्न हो सकता है-मन और वाणी का तो स्वतन्त्र अस्तित्व है पर हम जब गहराई से चिन्तन करते हैं तो मन और वाणी का मूल आधार शरीर ही है। यों जैन दर्शन में मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीन योग बताये हैं। परन्तु मन और वचन का योग काययोग के ही अन्तर्गत आ जाता है। यह दोनों काय योग केही उपभेद हैं। मन और वचन इन दोनों का निर्माण काया के द्वारा ही होता है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं - बुद्धि, चित्त, हृदय आदि अन्तःकरण के लिए जिन-जिन पुद्गलों की आवश्यकता होती है उनका आकर्षण काया के द्वारा ही होता है और वाणी के लिए भी जिन पुद्गलों की आवश्यकता होती है उसका आकर्षण भी काया ही करती है। शास्त्रीय मान्यता है कि मनन, चिन्तन, अध्यवसाय से पूर्व मन नहीं होता । 'मन मन्यमान' होता है। तो उसे दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं मनन आदि करने से पहले और उसके पश्चात् मन का अस्तित्व नहीं । इसी प्रकार बोलने से पहले और बोलने के पश्चात् भाषा नहीं रहती। भाषा बोलने के क्षणों तक ही रहती है । " भाष्यमाणा भाषा " कहा गया है। सार यह है- मनोयोग और वचनयोग इन दोनों का अस्तित्व काययोग पर आत है। काया की प्रवृत्ति से ही ये दोनों प्रवृत्तियाँ सम्पन्न होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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