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________________ ७३0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) बताया। इसका आशय भी शरीर को केवल संयममार्ग में प्रवृत्त कराना है, असंयम पथ में प्रवृत्त होते हुए को अथवा संयमपथ से निवृत्त होते हुए को रोकना है।' उन्होंने शरीर के लिए होने वाली सहज प्रवृत्ति-भूख, निद्रा आदि का एकान्तरूप से निषेध नहीं किया। बल्कि साधक को ६ कारणों से शरीर के लिए आहार करने का और ६ कारणों से आहार के त्याग करने का विधान किया है। प्रवृत्ति-निवृत्ति-कर्ता शरीर को मारना नहीं, शरीर से संवरधर्म पालना है । भगवान् महावीर का आशय यह नहीं है-शरीर प्रवृत्ति करता है तो उसे मार कर समाप्त कर दो। उसे किसी तरह खत्म कर दो। शरीर अपने आप में तो जड़ है, स्वयं मरा हुआ है, उसे मारने की जरूरत ही नहीं है। वह जो कुछ भी प्रवृत्ति या निवृत्ति करता है, वह शरीर में सर्वत्र विराजमान (व्याप्त) आत्मा के इशारे से भी नहीं, किन्तु मन के संकेत पर प्रवृत्त या निवृत्त होता है। मन और आत्मा ये दोनों हमें दिखाई नहीं देते। आत्मा तो अमूर्त होने के कारण अव्यक्त है ही, वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है, किन्तु मन भी सूक्ष्म पुद्गलों द्वारा निर्मित होने से परोक्षज्ञानी द्वारा ग्राह्य नहीं है। अतः शरीर को मारना नहीं है, अपितु संवरधर्म की साधना में अभ्यस्त करना है। सर्वप्रथम शरीर का संवरसाधना की दृष्टि से अनुप्रेक्षण . . सर्वप्रथम हमें शरीर की उपयोगिता अनुपयोगिता का यथार्थ मूल्यांकन कर लेना चाहिए। शरीर का मूल्यांकन अथवा शरीर प्रेक्षण लोग भिन्न-भिन्न दृष्टि से करते हैं। एक स्थूल दृष्टि वाला व्यक्ति शरीर का मूल्यांकन या अनुप्रेक्षण शरीर के सौन्दर्यअसौन्दर्य, सौष्ठव-असौष्ठव या दुबलेपन-पतलेपन या मोटेपन से करता है। चिकित्सक भी रोगी के शरीर को देखता-जाँचता है। वह भी शरीर के प्रत्येक अवयव को ठोक-बजाकर देखता है। उसका दृष्टिकोण है-शरीर के स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य की जाँच करना और उसकी चिकित्सा करना। एक व्यभिचारी भी किसी रमणी के शरीर को देखता है, वह उसके रंग-रूप, आकार-प्रकार और डीलडौल को कामुकता की दृष्टि से अवलोकन करता है। परन्तु एक अध्यात्मसाधना-परायण व्यक्ति के द्वारा शरीर को देखने और पूर्वोक्त व्यक्तियों के द्वारा देखने में महान् अन्तर है। साधक कमों के आसव और संवर दोनों १. असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ........ २. वेयण-वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमहाए । तह पाणवत्तियाए, छ8 पुण धम्मचिंताए। आयक-उवसग्गे-तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेयणाट्ठाए॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २६/३३.३५ -उत्तराध्ययन ३१/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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