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________________ आम्रव की बाढ़ और संवर की बांध ७११ ___ कर्मों का आनव (आगमन) इन्हीं द्वारों से होता है। आस्रव संसारवृद्धि के कारण हैं और संवर मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत हैं। पुण्य और पाप ये दोनों ही क्रमशः शुभ और अशुभ आम्रव हैं। दोनों आनवों के कारण हैं-शुभोपयोग और अशुभोपयोग। संवर इन दोनों आम्रवों तथा उनके शुभाशुभ उपयोगों से आत्मा को हटाकर उसे शुद्धोपयोगरूप धर्म में स्थिर करता है। इस दृष्टि से संवर का एक लक्षण तत्त्वार्थभाष्य-सिद्धसेनीया वृत्ति में किया गया है-आनवद्वारों को ढक देना-बंद कर देना, तथा आनवजनित दोषों का परिवर्जन करना संवर है।' इस अपेक्षा से संवर के मुख्यतया ५ भेद प्रतिफलित होते हैं-(१) सम्यक्त्वसंवर, ' (२) विरति (व्रत) संवर, (३) अप्रमादसंवर (४) अकषायसंवर और (५) अयोगसंवर। . इन पाँचों भावसंवरों का क्रम आध्यात्मिक विकास के क्रम से रखा गया है। वस्तुतः संवर का आन्तरिक स्वरूप इसी प्रकार का पंचास्तिकाय वृत्ति में बताया गया हैजीव के मोह, राग, द्वेष आदि आन्तरिक वैभाविक परिणामों का निरोध करना (भावसंवर है) और उसके निमित्त से योगद्वारों से आत्मा में प्रविष्ट होने वाले कर्मपुद्गलों के परिणामों का निरोध करना (द्रव्य) संवर है। सम्यक्त्व संवर की सिद्धि । : अध्यात्म विकास के क्रम से सर्वप्रथम सम्यक्त्व-संवर होता है। जीव अनादि काल से मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व) के गाढ़ तिमिर के कारण आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के गुणों को भूला हुआ है। इसी कारण संसारचक्र में परिभ्रमण करता रहता है। जब जीव अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उसकी प्राप्ति के लिए उद्यत हो जाता है, तब मिथ्यात्व का अन्धकार दूर होते देर नहीं लगती। सम्यक्त्व संवर के प्राप्त होते ही सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है, और आत्मा स्व-पर के यथार्थ स्वरूप को जानकर अपने स्व-भाव की ओर झुक जाता है। सम्यक्त्व के प्रभाव से अन्तःकरण में संसार से निवृत्तिभाव और विषयों से विरक्तिभाव आ जाता है। फिर वह मोक्ष (परमात्म) पद की प्राप्ति के लिए उद्यत हो जाता है। ': आम्रवद्वाराणां पिधानमाश्रव दोष-परिवर्जनं संवरः। - -तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धसेनीयावृत्ति ९/७ पृ. २१९ २. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मतं, विरई, अप्पमत्तया, अकसाया, अजोगया। .. -समवायांग समवाय ५ ... मोह-राग-द्वेष-परिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां च संवरः। -पंचास्तिकाय अमृत. वृत्ति पृ. १०८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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