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________________ आम्नव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६९५ अपनी शक्ति का, जो अपनी आत्मा की ही देन है, उपर्युक्त निरर्थक कार्यों में अपव्यय करते रहते हैं ।" ऐसे अदूरदर्शी आम्नवदृष्टि वाले लोग बच्चों की संख्या बढ़ाते समय यह नहीं सोचते कि इन बालकों के निर्वाह, शिक्षा, चिकित्सा, स्वावलम्बन, विवाह आदि के लिए कितनी शक्ति धनोपार्जन करने, साधन जुटाने आदि में खर्च करनी पड़ेगी। अधिकांश अदूरदर्शी लोगों का बहुत-सा समय, शक्ति और धन तो इन्हीं व्यर्थ के कार्यों, मौज-शौक, ऐश, आराम और भोगविलास में खर्च हो जाता है। यदि संवरदृष्टि अपनाकर वे युवावस्था में ही शक्तिकोष को व्यर्थ खर्च न करते, आवश्यकतानुसार उस शक्ति का विवेकपूर्वक उपयोग करते, तो संवरधर्म का भी लाभ प्राप्त होता, शुभ-अशुभ आम्लव से बच पाते। कितने ही लोग अपनी प्रशंसा, वाहवाही और सस्ती प्रतिष्ठा के लिए अपने धन को फूंक देते हैं। अगर वे इन्द्रिय संयम रखते तो उनकी शक्ति में वृद्धि होती, और वृद्धावस्था में पारिवारिक जीवन की गाड़ी को खींचना कठिन न पड़ता, अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्ति भी सुरक्षित रह जाती। युवावस्था में बरता गया आहार-विहार का संयम, क्रोधादि कषायों पर अंकुश, तथा अपनी मनोवृत्तियों और इन्द्रियों का निग्रह उस समय तो कठोर प्रतिबन्ध-सा असुविधाजनक मालूम होता है, परन्तु बाद में वृद्धावस्था में प्रौढ़ता का आनन्द एवं सुख-शान्ति सम्पन्न दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन का लाभ मिलता है तब पता चलता है कि दूरदर्शिता की दृष्टि अपनाने में कितना बड़ा लाभ है। बचपन से ही संवर के प्रशिक्षण-संस्कार जीवन के अन्त तक स्थायी रहते हैं बचपन से ही संवरदृष्टि की शिक्षा बच्चों को दी जाए कि अभी तो खेल-कूद में समय बिताया जा सकता है, अभिभावकों के सिर पर गुजारा हो सकता है, किन्तु सदा तो यह स्थिति नहीं रहने वाली है। खेलने के दिन लद जाएँगे, तब किसी भी समय कठोर उत्तरदायित्व तुम्हें अपने कंधों पर वहन करने होंगे। इसलिए अभी से प्रत्येक कार्यकलाप में संयम बरता जाए, समय और शक्ति का निरर्थक व्यय न किया जाए, उन्हें बचपन से ही संवर का महत्व समझाया जाए; संवर का अपने साथ-साथ अभ्यास कराया जाए तो किशोर अपनी भावी युवावस्था को ध्यान में रखकर दूरदर्शितापूर्वक अपने समय, शक्ति और क्षमता का उपयोग करेगा । उसी प्रकार की वह तैयारी करेगा। जिस मौजमस्ती में अधिकांश समय और मन लगा रहता है, उस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस होगी। अखण्ड ज्योति मार्च १९७८ पृ. २७ से भावांश ग्रहण १. २. वही, १९७८ मार्च पृ. २३ से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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