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________________ आम्रव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६९३ आम्रवदृष्टि अदूरदर्शिता की, संवरदृष्टि दूरदर्शिता की दृष्टि आस्रवदृष्टि अदूरदर्शिता की दृष्टि है। इस दृष्टिवाला व्यक्ति तत्काल लाभ देखकर बिना कुछ भी सोचे-विचारे और दूरगामी दुष्परिणामों का विचार किये बिना, आवेश में आकर या देखादेखी मूढ़ होकर नीति-धर्म-विरुद्ध गलत कार्यों-प्रवृत्तियों को अपना लेता है। किन्तु बाद में उसे लाभ के बदले हानि ही अधिक उठानी पड़ती है। अनेक चिन्ताएँ उसे घेर लेती हैं। ___व्यावहारिक जीवन में अदूरदर्शी दृष्टि वाले लोग तात्कालिक लाभ के चक्कर में कर्मों के आगमन (आस्रव) का पथ अपनाते हैं। एक दुकानदार अपना कारोबार प्रारम्भ करते समय तात्कालिक लाभ की दृष्टि से आसव मार्ग-बेईमानी और ठगी का मार्ग अपनाता है। वह सस्तेपन का आकर्षण देकर ग्राहकों को लुभाता है, खींचता है। उसे घटिया वस्तुएँ पकड़ाकर या नाप-तौल में कम देकर शीघ्र ही अधिक लाभ उठाने की दृष्टि रखता है। इसी दुर्नीति से वह शीघ्र धनवान बन जाने के स्वप्न देखता है। ____उसका व्यवसाय प्रारम्भ में चमकता तो है, परन्तु उसके ग्राहकों से वस्तुस्थिति अधिक दिन तक छिपी नहीं रहती। वास्तविकता उभर कर सामने आए बिना नहीं रहती। लोगों को उसकी चालाकी मालूम हो जाती है। और धीरे-धीरे सस्तेपन के अथवा चापलूसी के प्रलोभन से आकर्षित हुए सारे ग्राहक एक-एक करके टूट जाते हैं। इतना ही नहीं, वे (ग्राहक) अपने परिचितों को उस चालाक दुकानदार से सावधान रहने का संकेत कर देते हैं। फलतः उस अदूरदर्शी दुकानदार का व्यवसाय ठप्प हो जाता है और शीघ्र धनाढ्य बनने की लिप्सा उसे चिरस्थायी दरिद्रता के गहरे गर्त में धकेल देती है। ऐसा ही अदूरदर्शी आम्नव दृष्टि का परिणाम है।' यदि वह दुकानदार पहले से ही दूरदर्शी संवर दृष्टि अपमाता, सन्तोष और धैर्य से काम लेता, अपनी प्रामाणिकता और ईमानदारी की छाप डालने के दूरगामी सुपरिणाम (स्थायी लाभ) की ओर ध्यान देता तो उसका व्यापार धड़ल्ले से चलता। ग्राहकों का उस पर विश्वास जम जाता और एक दिन वह नीति-धर्म और संतोषरूपी धन से समृद्ध होता। अदूरदर्शी आम्नवदृष्टि-परायण लोगों की रीति-नीति ___ अनाचार और कदाचार की नीति आमतौर पर अदूरदर्शी आप्नवदृष्टि वाले लोग इसलिए अपनाते हैं कि उससे तात्कालिक लाभ मिलता है। चोरी, जारी, बेईमानी, १. वही, मार्च १९७८ पृ. २६ से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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