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________________ ६७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) (लौकिक और लोकोत्तर धर्म) में स्थिर होकर सर्वप्राणियों पर अनुकम्पाशील बन, जिससे तू इस मनुष्य भव के अनन्तर वैक्रिय शरीरधारी (वैमानिक) देव हो सके।'' इसी प्रकार पार्श्वनाथ शासन के तेजस्वी मुनि केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा की योग्यता-अयोग्यता की जांच-परखकर सीधे ही शुद्धोपयोग का महाव्रताचरण का उपदेश नहीं दिया, बल्कि नैतिक एवं व्यावहारिक जीवन में धर्म (पुण्योपार्जन कारक) का आचरण करने की प्रेरणा की। फलतः वह देशविरत श्रमणोपासक धर्म की अंगीकार करने हेतु स्वयं तैयार हो गया। जब वह विदा होने लगा, तब श्री केशीश्रमण ने उसे कहा-"राजन् ! अब तुम रमणीक (पुण्यशाली) बन गए हो, अतः पुनः अरमणीक (अपुण्यशाली-पापाचारी) मत बनना। अशुभोपयोग से सर्वथा दूर रहने के लिए शुद्धोपयोग का लक्ष्य रखकर शुभोपयोग में स्थिर होना आवश्यक परन्तु जो व्यक्ति इससे भी ऊपर उठकर मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए तत्पर एवं योग्य हो गए हैं, उनके लिए भी दशवकालिक सूत्र में यह स्पष्ट निर्देश है कि तुम अपनी प्रत्येक चर्या करते समय जागरूक और यतनाशील रहो, ताकि पापकर्मों का बन्ध न हो। इसका मतलब यह हुआ कि शुद्धोपयोग की भूमिका प्राप्त करना चाहने वाले मुनियों को भी सर्वप्रथम अशुभोपयोग (पापकर्म के आसव एवं बन्ध) से बचने के लिए शुभोपयोग में स्थिर होने का निर्देश किया है। - स्थानांग सूत्र में संयमी साधु के लिए सम्यग्दर्शनपूर्वक महाब्रताचरण में प्रवृत्त करते समय आठ अभ्युत्थान सूत्रों का निर्देश किया है-“आठ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए साधक सम्यक् चेष्टा करे, सम्यक् यल करे, सम्यक् पराक्रम करे। इन आठ (संवर निर्जरा-मूलक धर्मों) की प्राप्ति के विषय में जरा भी प्रमाद न करे : (१) अश्रुत धर्मों के भलीभाँति श्रवण के लिए जागरूक (उद्यत) रहे। (२) सुने हुए धर्मों को मन से ग्रहण करे, स्मृति में धारण करने के लिए उद्यत (जागरूक) रहे;(३) संयम (संवर) के द्वारा नवीन कर्मों के निरोध के लिए तत्पर रहे, (४) तपश्चरण द्वारा प्राचीन कर्मों के पृथक्करण और विशुद्धिकरण के लिए प्रयत्नशील रहे। (५) असंग्रहीत परिजनों (शिष्यों) के संग्रह करने (संघ में लाने और उन्हें ग्रहण-आसेवन शिक्षा-दीक्षा १. देखें, उत्तराध्ययन सूत्र चित्त-संभूतीय संवाद, अ. १३ गा. ३२ २. “ से तेणद्वेण पएसी ! एवं वुच्चइ-मा णं तुमे पएसी ! पुब्बिं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि, जहा वणसंडेइ वा|" ___ -राजप्रश्नीय सूत्र २७२ ३. "जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। ... जय भुजंतो भासंतो पाव कम्मं न बंधइ।" -दशवैकालिक सूत्र अ. ४, गा.८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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