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पुण्य और पाप : आम्नव के रूप में ६५५
मनःस्थिति के आधार पर अपने-आपको शुभभावनाओं के प्रवाह में बहाकर परोपकारार्थ जीवन अर्पण कर देने से बढ़ती है। उसी पुण्यवृद्धि के आधार पर अनुकूल परिस्थितियाँ बनती हैं। __इस तथ्य को पुण्यात्मा दिव्य मानव जब हृदयंगम कर लेता है और तदनुसार आचरण करने लगता है तो उसे सांसारिक विषयसुखों के तथा साधनों के उपभोग की लिप्सा और उन्हें जुटाने की तृष्णा शान्त हो जाती है। वह इस तथ्य को बखूबी जान-मान लेता है कि वासना, तृष्णा और लालसा को बढ़ाते रहने से वे कभी शान्त नहीं होतीं, बल्कि आग में घी डालते रहने की तरह बढ़ती ही रहती हैं। उससे पापासव घटता नहीं, बढ़ता ही है। पापकर्मानव शीघ्र प्रविष्ट होने का नोत : तात्कालिक क्षणिक प्रलोभन
तात्कालिक लोभ-लालसा के आकर्षण के साथ ही पापकर्मों का आनव शीघ्र प्रविष्ट हो जाता है। पापासव का यह एक प्रकार का मायाजाल है, जो भोले-भाले मानव को फंसा लेता है। पापासव का यह प्रलोभनभरा छलावा चूहे को रोटी का लोभ देकर पिंजरे में फंसाकर उसकी जान लेने जैसा धोखा है।
पुण्यानव-परायण और पापासव-परायण व्यक्ति में यही अन्तर है कि बुद्धिमान व्यक्ति पापकर्मों के इस मायाजाल में नहीं फंसता और अनायास प्राप्त तथा जीवन में रमे हुए पुण्यासव को भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग में उत्तरोत्तर बढ़ने के उद्देश्य से अपनाता है जबकि मोहमूढ़ मूर्ख व्यक्ति दूरदर्शितापूर्ण विचार न करके स्वयं को पापकर्मों के प्रलोभनभरे मायाजाल में फंसा लेता है। पापकर्मों में एक बार फंस जाने के कारण फिर उसे सम्बोधि प्राप्त होना अतिदुर्लभ हो जाता है। . ____ बुद्धिमत्ता और मूर्खता की यही कसौटी है कि बुद्धिमान् दूरदर्शी होता है, मूर्ख होता है-अदूरदर्शी। जैसे बंसरी की आवाज सुनकर मृग मोहित हो जाता है, कमल के कोश में बंद होकर भौंरा हाथी के पैरों तले कुचल जाता है, वैसे ही मूर्ख व्यक्ति अदूरदर्शी बनकर लुभावने विषय-वासना के जाल में फंस जाता है। कुव्यसनियों और नशेबाजों की गणना ऐसे ही अदूरदर्शी लोगों में है जिन्हें तात्कालिक मौज-मजा ही सब कुछ लगता है, लेकिन उसी कुचक्र में फंसकर वे जब अपना पैसा, स्वास्थ्य, सम्मान और नीतिधर्म आदि सब कुछ गंवा बैठते हैं, तब उन्हें अच्छे दिन याद आते हैं।
चोर, डाकू, जुआरी और तस्कर को भी तत्काल लाभ ही आनन्दप्रद लगता है, मगर वे उस दुर्दिन को नहीं देखते, जब उन्हें भयंकर राजदण्ड, समाजदण्ड, तिरस्कार, धिक्कार और असहयोग मिलता है। पापास्रव का परिणाम सदैव दुःखद ही होता है, जबकि पुण्यासव अन्त में त्याज्य होते हुए प्रारम्भिक भूमिकाओं में अपनाने पर उसे उसके प्रायः सुखद परिणाम ही देखने को मिलते हैं।
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