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________________ ६५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आगे की भूमिका में उत्तरोत्तर पाप हारता है, पुण्य जीतता है निष्कर्ष यह है कि अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तो लोभ आदि कषाय और मोह की दशा तीव्रतम तो नहीं, परन्तु तीव्र तो रहती ही है। उसके पश्चात् देशविरति दृष्टि गुणस्थान से दसवें सूक्ष्म सम्पराय नामक गुणस्थान तक लोभादि कषाय और मोह की दशा उत्तरोत्तर कम होती जाती है। इस तथ्य की दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों की शक्ति को देखें तो पुण्य की शक्ति प्रबल है, पाप की शक्ति अल्प है । परन्तु निम्न-निम्नतर गुणस्थानों में पाप की शक्ति प्रबल प्रतीत होती है, पुण्य की कम; परन्तु ऐसे गुणस्थान प्रथम से लेकर चतुर्थ तक के चार ही हैं। आगे के गुणस्थानों में पाप की शक्ति उत्तरोत्तर कम होती जाती है। पाप हारता जाता है और पुण्य जीतता जाता है। पाप पतन के मार्ग पर और पुण्य उत्थान के मार्ग पर ले जाता है प्रत्येक प्राणी के भीतर अन्तरात्मा की भूमि पर ये ही दो प्रबल तत्त्व बैठे हैं। एक का नाम पुण्य है, दूसरे का नाम पाप है। एक देव है, दूसरा असुर है। एक प्रकाश रूप है, दूसरा अन्धकार रूप है। ये दोनों ही आनव (कर्मानव) हैं। एक आत्मा के उत्थान एवं विकास में सहायक हो सकता है, जबकि दूसरा आत्मा के पतन में सहायक। एक सांसारिक या भौतिक विकास में सहायक होने से आध्यात्मिक एवं धार्मिक उत्थान में निमित्त बन जाता है, जबकि दूसरा सांसारिक एवं भौतिक विकास में एक बार तो सहायक होता प्रतीत होता है, परन्तु फिर विकास का दीपक एकदम बुझ जाता है और वह आध्यात्मिक एवं नैतिक पतन के मार्ग पर बढ़ता जाता है। दोनों के परिणाम में रात और दिन का अन्तर है। पुण्य का परिणाम सुख के रूप में आता है, जबकि पाप का परिणाम दुःख रूप में। अधिकांश मानव सुख की - विषय - सुख की कामना करते हुए, उसकी पूर्ति के लिए अनेकों पाप कर्म करते हैं। उनके दुष्परिणाम के रूप में वे दुःख भी पाते रहते हैं, फिर भी उक्त पाप कर्म से विरत नहीं होते। इसका कारण है - अन्तर्मन में होने वाला वही अन्तर्द्वन्द्व । पुण्य की भ्रान्तिवश पापास्रव का संचय वस्तुतः ऐसे सुखेच्छु लोगों को पाप कर्मों के आम्नव से विमुख होकर पुण्यकर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए था । ऐसे लोग धन, विषय-सुख-साधन आदि को पुण्य का फल मानकर उन्हीं के जुटाने में एक ओर नाना पाप करते रहते हैं, दूसरी ओर ऐसे लोग थोड़ा-सा भजन-पूजन या दिन में कुछ देर भगवान् का नाम-जप या पूजा-पाठ करके मान लेते हैं कि हमने पुण्य कर्म कर लिया। इस पुण्य लाभ से हमारे पाप नष्ट हो जायेंगे। फलस्वरूप इस लोक में हमें धन-वैभव और उससे सुख-साधन प्राप्त हो जायेंगे, परलोक Jain Education International For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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