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________________ पुण्य और पाप : आस्रव के रूप में ६४१ है। " " मनुष्य की गतियाँ इसलिए क्रिया की कोटि में आती हैं, कि उन्हें कर्ता (Agent) अक्सर अभिप्रायपूर्वक करता है, जबकि पेड़, पौधे, राकेट आदि वैसा नहीं कर सकते।".., मानव की भी कई क्रियाएँ (Human motives) आन्तरिक होती हैं, जिनके विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि वे ऐच्छिक या अभिप्रायात्मक हैं। जैसे-हाथ का कांपना, सांस लेना, रक्त संचार आदि। ये क्रियाएँ सहज होने के कारण आन्तरिक (नाड़ीतंत्र) से सम्बन्धित हैं, इसलिए इन्हें नियंत्रित नहीं किया जा सकता।" ".... अभिप्रायात्मक क्रियाओं का उत्तरदायित्व (Responsibility) से सम्बन्ध होने कारण किसी भी क्रिया को शुभ या अशुभ कहा जाता है। ..."अगर अभिप्रायात्मक एवं अनभिप्रायात्मक क्रियाओं में भेद नहीं माना जाएगा, तो इसके परिणाम मानव-दर्शन एवं नीतिशास्त्र के लिए अच्छे नहीं होंगे।" "मनस् और शरीर के सम्बन्ध की व्याख्या के लिए वे अभिप्रायात्मक क्रियाएँ-जिनका सम्बन्ध अनिवार्यतः दैहिक गति से होता है, महत्वपूर्ण हैं।" ___ अभिप्रायात्मक क्रियाएँ व्यक्ति अर्थात्-दैहिक (Corporeal) शरीरयुक्त कर्ता करता है। इस दृष्टि से क्रिया के साथ शुभ अभिप्राय है या अशुभ? इसके निर्णय के लिए क्रिया को वर्णित करने वाले निम्नोक्त तत्वों पर विचार करना चाहिए___(१) कर्ता (Agent)—इस क्रिया को किसने किया? ' (२) क्रिया-प्रकार (Act-Type)-उसने कैसी क्रिया की? (३) क्रिया करने की प्रकारता (Modality of action)--उसने किस प्रकार से क्रिया की? इसके अन्तर्गत दो पहलू हैं-(अ) प्रकारता की विधि (Modalityofmanners) : किस प्रकारता की विधि से उसने इसे किया?,(ब) प्रकारता का साधन (Modality of means) : उसने किस साधन द्वारा इसे किया? . (४) क्रिया की परिस्थिति (Setting of action)-किस सन्दर्भ में उसने यह क्रिया की? इसके अन्तर्गत तीन पहलू हैं-(अ) कालिक पहलू-उसने इसे कब किया? (ब) दैशिक पहलू-उसने इसे कहाँ किया? और (स) परिस्थित्यात्मक पहलू (Circumstantial aspect)-उसने किन परिस्थितियों में इस क्रिया को किया? १. जिनवाणी, कमसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख-'पाश्चात्य दर्शन में क्रियासिद्धान्त' (डॉ. के. एल. शर्मा) से, पृ. २१८ २. वही, पृ. २१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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