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________________ यों आस्रव स्वरूपतः एक ही है, किन्तु मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों, मिथ्यात्व तथा पाप-पुण्य की अपेक्षा से इसके कई भेद हैं। 'आनव तत्त्व एक है, वह पुण्य और पाप - परस्पर विरोधी रूपों में कैसे प्रगट हो. सकता है ? इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक पौधा है, वही भूमि, पानी, खाद आदि है, किन्तु उसी पर गुलाब का फूल खिलता है, महकता है, अपनी सुगन्ध से जन-मन के चित्त को प्रसन्न करता है, और उसी डाली ( टहनी) पर कांटा भी उत्पन्न होता है, जो शूल है, कष्टदायी है, अप्रिय है - मानव इसे नहीं चाहता । फूल पुण्य का प्रतिरूप है और शूल पापे का ।' इसी प्रकार अपने-अपने अदृष्ट तथा भाव कर्म, राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि के अनुसार जीवात्मा पुद्गल कर्म-परमाणु पुंज को आकर्षित करता है, खींचता है, अपनी ओर प्रवाहित करता है । यही आम्रव है । यह शुभ भी है और अशुभ भी । संवर संवर, आम्रवों का निरोध है, यह आम्रवों को रोकता है, आम्रव द्वारों को बन्द करता है, आत्मा में कर्मों के आगमन को रोकता है। इसके भी काय संवर, मनःसंवर, वचन संवर, इन्द्रिय संवर, प्राण संवर आदि अनेक रूप अथवा भेद हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समिति गुप्ति, परीषहजय आदि से संवर होता है, ये संवर के भेद हैं। सम्यक्त्व, विरति, अकषाय, प्रमाद का अभाव तथा योगों की अचंचलता भी संवर के रूप हैं। किन्तु समझना यह हैं कि संवर की क्रिया किस प्रकार निष्पन्न होती है। एक भौतिक उदाहरण से समझें । जंगल में अथवा किसी बगीचे में एक वृक्ष है। माली खाद आदि उसकी जड़ों में देता है। उससे उत्पन्न रस को वृक्ष खींचता है और परिपुष्ट होता है, बढ़ता है। वनस्पति विज्ञान इसे पोषक तत्वों को खींचना (Secretion) कहता है। लेकिन कर्मविज्ञान की दृष्टि से यह आस्रव है। अब कल्पना करिए, वृक्ष की जड़ के नीचे कोई चट्टान आ गई, कंकड़, पत्थर आ गये, उनसे खाद का पोषक तत्त्व रुक गया। वृक्ष उस तत्त्व को खींच नहीं सकता, बढ़ नहीं सकता, कुछ समय बाद वह हरा-भरा वृक्ष सूखकर ठूंठ बन जायेगा। Jain Education International 6 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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