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________________ ६३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) शुभ परिणाम पुण्य है, और पापरूप पुद्गल (कर्म) के बन्ध का कारण होने से अशुभपरिणाम पाप है।" पापानव के विविध हेतु रूप परिणाम इस अपेक्षा से ‘सर्वार्थसिद्धि' में पाप का निर्वचन किया गया है - जो आत्मा को शुभ (परिणामों) से बचाता है, यानी दूर रखता है, वह पाप है।"२) 'पंचास्तिकाय' में पापप्रद आनव के परिणामों (भावों) का निरूपण इस प्रकार किया गया है - "चारों संज्ञाएँ, तीन अशुभ लेश्याएँ, इन्द्रियवशता, आर्त-रौद्र-ध्यान, दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह, ये भाव पाप (आनव और बन्ध) के प्रदायक हैं।” 'नयचक्र' (बृ.) में 'अशुभवेदादि के कारण जो अव्रतादि भाव हैं, उन्हें शास्त्र में पाप कहा गया है, व्रतादि भाव को शुभवेदादि के कारण पुण्य ।" योगसार में कहा गया है—“अर्हन्तादि पूज्य-पुरुषों की निन्दा करना, समस्त जीवों के प्रति निर्दयभाव रखना और निन्दित आचरणों में प्रीति रखना आदि पाप (आम्रव) बन्ध के कारण हैं।" पंचास्तिकाय के अनुसार-जिसकी चर्या प्रमादबहुल हो, हृदय में कलुषता हो, विषयों के प्रति लोलुपता हो, पर (सजीव-निर्जीव पदार्थ) का संताप करता हो, दूसरों का प्रवाद (निन्दा) करता हो, वह पापानव करता है। पाप विषकुम्भवत्, अपराधमय, पातक एवं हेय तथा अहितकर पाप तो जीवन के लिए सर्वथा हेय है। 'समयसार वृत्ति' के अनुसार - "जो अज्ञजन साधारण (पापकर्मों से) अप्रतिक्रमणवृत्ति (अनिवृत्ति) वाले हैं वे शुद्ध आत्मा की सिद्धि के स्वभाव से भिन्न हैं। इसलिए पापरूपी विष से परिपूर्ण होने से, वे स्वतः १. तत्र पुण्य-पुद्गल -बन्धकारणत्वात् शुभ-परिणामः पुण्यम्, पाप-पुद्गल-बन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम् । - प्र. सा. त. प्र. / १८१ -सर्वार्थसिद्धि ६/३/३२० २. पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । ३. (क) सण्णाओ य तिलेस्सा इंदिय-वसदा य अत्तरुद्दाणि । - पंचास्तिकाय मू. १४० णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति । (ख) अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं ॥ (ग) निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नैर्घृण्यं सर्वजन्तुषु । निन्दिते चरणे रागः, पापबन्ध- विधायकः ॥ (घ) चरिया पमायबहुला कालुस्सं लोलदा य विसएसु । परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - नयचक्र वृ. १६२ - योगसार अ. ४ / ३८ - पंचास्तिकाय मू. १३९ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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