SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) 'द्रव्यसंग्रह' के अनुसार-'शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्यरूप होता है और अशुभ परिणामों से युक्त जीव पापरूप।' इसी प्रकार पुण्यरूप जीव का लक्षण मूलाचार के अनुसार यह है-“सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय-निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्यरूप जीव शुभपरिणामों की व्याख्या करते हुए ‘प्रवचनसार' में कहा गया है-रागद्वेषविजेता अर्हद् देव, इन्द्रियजय के द्वारा शुद्धात्मस्वरूप के विषय में प्रयत्ल-परायण यति (साधु), स्वयं भेदाभेदरूप रत्नत्रय के आराधक तथा रत्नत्रयाकांक्षी भव्य मानवों को जिनदीक्षा देने वाले गुरु, इन तीनों की पूजा-भक्ति, तथा दान (चार प्रकार के दान) एवं, शील-व्रतादि-परिपालन और उपवासादि शुभ अनुष्ठानों में जो व्यक्ति अनुरक्त होता है, तथा अशुभ अनुष्ठानों से विरत रहता है, वह जीव शुभ उपयोग (परिणाम) वाला होता है। इसके विपरीत जीवहिंसा, चोरी, असत्य आदि अशुभ कार्य, पीड़ाकारक हिंसारूप अशुभ वचन तथा ईर्ष्या, जीववधादिरूप अशुभ मन से अशुभ उपयोग (परिणाम) होता पुण्यानव के कारण पंचास्तिकाय के अनुसार-जिस जीव में प्रशस्त राग है, जिसके परिणाम अनुकम्पा से युक्त हैं, जिसके चित्त में कलुषता नहीं है, उस जीव के पुण्यासव होता है। - इससे भी आगे बढ़कर मूलाचार में कहा है-जीवों के प्रति अनुकम्पा, शुद्ध मन, वचन, काय की क्रिया, सम्यग्-दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग, ये पुण्यकर्म आसव के कारण हैं। इसके (शुभ के) विपरीत जीवों के प्रति निर्दयता, अशुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा मिथ्यादर्शन-ज्ञानरूप उपयोग पाप कर्मानव के कारण हैं। १. (क) 'शुभपरिणाम-निर्वृतो योगः शुभः, अशुभपरिणाम-निवृतश्चाशुभः।' '-सर्वार्थसिद्धि (ख) 'सुह-परिणामो पुण्णं, असुहो पावं त्ति भणियमण्णेसु।' -प्रवचनसार मू. १८१ (ग) 'सुह-असुह-भावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा।' -द्रव्यसंग्रह मू. ३८/१५८ (घ) 'सम्पत्तेण सुदेण य विरदीए कसाय-णिग्गह-गुणेहि। जो परिणदो सो पुण्णो।' -मूलाचार मू. २३४ (ङ) 'देवद-जदि-गुरु-पूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोक्ओगप्पगो अपा।' -प्रवचनसार १/६९ (च) 'पापं हिंसादिक्रिया साध्यं अशुभं कर्म।' स. म. २७/३०२/१७ (छ) 'सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं त्ति हवदि जीवस्स।' -पंचास्तिकाय १३२ २. (क) “रागो जस्स पसत्यो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। _ चित्तम्हि णस्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि॥" . -पंचास्तिकाय मू. १३५ (ख) "पुण्णस्सासव भूदा अनुकंपा सुद्ध एव उवओगा। विपरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि।" -मूलाचार २३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy