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________________ योग-आनव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६२७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में दूसरी दृष्टि से इन दोनों का लक्षण किया गया है - बाँधने, छेदने और मारने आदि की क्रियाएँ अशुभ काययोग हैं, जबकि वीतरागदेव, वीतरागानुगामी निर्ग्रन्थ तथा जैनशास्त्रों के प्रति श्रद्धा-भक्ति शुभ काययोग है । " काययोग के सात भेद : क्यों और किस अपेक्षा से? काययोग के सात भेद जो किये गए हैं, वे इसलिए कि मनुष्यों और तिर्यंचों में जन्म से औदारिक शरीर होता है और देवों तथा नारकों में वैक्रिय शरीर । इसके अतिरिक्त तैजस और कार्मण शरीर तो मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारक इन चारों गतियों के जीवों (समस्त संसारी जीवों) में पाये जाते हैं और आहारक शरीर तो एकमात्र चतुर्दशपूर्वज्ञानधारक मुनियों में ही पाया जाता है। इन सांसारिक जीवों की अपने-अपने शरीर के अनुसार तथा अपने-अपने कर्म तथा कार्मणशरीर के अनुसार भिन्न-भिन्न . प्रकार के काय-परिस्पन्दन, कायप्रयत्न या कायपरिणाम होता है। इसी को लेकर एक ही काययोग के विभिन्न सांसारिक जीवों की अपेक्षा से सात प्रकार किये गए हैं। काययोग के भेद और स्वरूप धवला के अनुसार औदारिक शरीर के आश्रय से उत्पन्न शक्ति (वीर्य) से जीव के प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिककाययोग कहते हैं। गोम्मटसार (जीवकाण्ड) के अनुसार औदारिककाय के निमित्त से आत्मप्रदेशों की जो कर्म-नोकर्मों को आकर्षण शक्ति होती है, वही औदारिककाययोग है। तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार औदारिक शरीर के साथ योग औदारिककाययोग है, अर्थात् औदारिकशरीर के अवलम्बन से उपजात क्रिया के साथ (कर्म का) सम्बन्ध औदारिककाययोग है। लोकप्रकाश के अनुसार प्रारम्भ किया हुआ औदारिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है, तब तक वह कार्मण शरीर के साथ औदारिकमिश्र कहलाता है। जो शरीर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अपूर्ण-अपर्याप्त रहे उसे मिश्र कहते हैं। जहाँ कार्मण शरीर के साथ 'औदारिक मिश्र हो- अपरिपूर्ण अपर्याप्त हो, वहाँ औदारिकमिश्र होता है। अतः धवला ..के अनुसार, कार्मण और औदारिक स्कन्धों से उत्पन्न हुई शक्ति से जीवप्रदेशों के परि स्पन्दन के लिए जो योग यानी प्रयत्न होता है, उसे औदारिकमिश्र काययोग कहते हैं । ३ १. (क) राजवार्तिक ६/३/१-२/५०६-५०७ (ख) कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ५३,५५ २. (क) धवला पु. १ / पृ. ३१६ (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड (जीवप्रबोधिनी टीका) २३० (ग) तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धसेनीया वृत्ति ६ / १ ३. (कं) लोकप्रकाश ३/१३०८ (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड (जीव प्रबोधिनी टीका) २३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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