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________________ ६६१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मृषा (असत्य) मनोयोग, (३) सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग और (४) असत्यामृषा मनोयोग।' . मनोयोग के चार भेदों का स्वरूप इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार है-सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थ के विषय करने वाले मन को 'सत्यमन' कहते हैं, उसके द्वारा जो योग (प्रवृत्ति-मन से चिन्तनात्मक क्रिया) होता है, उसे सत्यमनोयोग कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा (असत्य) मनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा (असत्य) दोनों के मिश्रित मनोयोग को सत्यमृषामनोयोग कहते हैं और जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो, उसे असत्यामृषा मन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है, उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। असत्यामृषा मनोयोग को व्यवहारमनोयोग भी कहते हैं। भावमन की अपेक्षा से योग के भेदों के लक्षण गोम्मटसार जीवकाण्ड में इन चारों का लक्षण इस प्रकार किया गया है'सत्यमन' का अर्थ है-सत्यार्थज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन, ऐसे सत्य मन से जनित योग या प्रयत्नविशेष सत्यमनोयोग है। उससे विपरीत असत्यार्थ-विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्लविशेष असत्यमनोयोग है। उभयार्थ-विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्न-विशेष उभय-मनोयोग है और अनुभयार्थ-विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयल विशेष अनुभय मनोयोग है। द्रव्यमन की अपेक्षा से योग के भेदों के लक्षण इसी को विश्लेषणपूर्वक समझाते हुए कहा गया-यथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ सत्य है। जैसे-जलज्ञान का विषयभूत जल, क्योंकि उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का सदभाव है। अयथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ असत्य है। जैसे-जलज्ञान का विषयभूत मृगमरीचिका का जल। क्योंकि उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है। यथार्थ और अयथार्थ, दोनों ज्ञानगोचर अर्थ। उभय सत्यासत्य है। जैसे-जलज्ञान के विषयभूत कमण्डल में घट का ग्रहण, क्योंकि कमण्डलु में जल धारणादि रत्तक्रिया के सद्भाव से वह घट की भांति सत्य है, किन्तु घटाकार के अभाव में असत्य है। प्रतिभाशाली तेजस्वी बालक को अग्नि' कहने की भांति यह कथन गौण है तथा यथार्थ-अथार्थ दोनों ही प्रकार १. (क) षट्खण्डागम १/१,१/सूत्र ४९/२८० (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) मू. २१७/४७५ (ग) पच्चीस बोल का थोकड़ा, बोल ८वाँ २. पंचसंग्रह (प्राकृत) १/८९-९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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