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________________ पुण्य-पाप के निमित्त से आत्मा का उत्थान-पतन ५३७ दस कथानायकों के दस अध्ययन हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) निषध, (२) अभिद्रह, (३) वह, (४) प्रगति, (५) द्युति (युति), (६) दशरथ, (७) दृढ़रथ, (८) महाधनु, (९) सप्तधनु, (१०) दशधनु। इसका नाम वृष्णिदशा रखने का कारण बताते हुए टीकाकार कहते हैं-जो महान् आत्मा अन्धकवृष्णि नरेश के कुल में उत्पन्न हुए हैं, उनकी दशा यानी अवस्था, चरित, गति एवं सिद्धिगमन का वर्णन जिस शास्त्र (उपांग) में है, वह वृष्णिदशा कहलाता है। चूर्णिकार के अनुसार यहाँ अन्ध शब्द का लोप करके वृष्णिदशा नाम रखा गया है। अथवा अन्धकवृष्णि कुल के दस कथानायकों के नाम से दस अध्ययनों में जो उपांग वर्णित है, उसे भी अन्धकवृष्णिदशा कहा है।' निषध द्वारा भोगमार्ग से त्यागमार्ग की साधना से सिद्धि इसके प्रथम अध्ययन के कथानायक निषध (णिसढ) का संक्षेप में जीवनवृत्त इस प्रकार है-निषध बलदेव राजा.और रेवतीदेवी का पुत्र था। गर्भ में आने से पूर्व उसकी माता ने सिंह का स्वप्न देखा। धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया। कलाचार्य से कलाओं का प्रशिक्षण ग्रहण किया। पचास राजकन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। एक बार तो ऐसा मालूम होता था, मानो निषधकुमार भोगों में आकण्ठ डूब जायेगा। परन्तु एक बार जब द्वारिका नगरी में भगवान् अरिष्टनेमि का पदार्पण हुआ, तब उनका प्रवचन सुनकर उसके हृदय में आनन्द का पार न रहा। उसने श्रावक धर्म अंगीकार किया। उस समय वरदत्त अनगार ने भगवान् से पूछा-भगवन्! यह निषधकुमार बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, सौम्य एवं प्रियदर्शन लगता है। इसने ऐसी ऋद्धि सम्पदा कैसे और क्या करके लब्ध और प्राप्त की? ... भगवान् ने निषध के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा-भारतवर्ष में रोहीडक नामक नगर था। वहाँ के राजा का नाम महब्बल और रानी का नाम पद्मावती था। उनके एक पुत्र का जन्म हुआ। नाम रखा वीरंगत। यौवनवय में पदार्पण करते ही ३२ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण किया। विवाह के उपरांत वीरंगतकुमार सभी ऋतुओं के योग्य भोग सामग्री उपभोग करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। . एक दिन रोहीडक नगर में सिद्धार्थ नाम के आचार्य पधारे। वीरंगतकुमार ने उनके दर्शन किये, प्रवचन सुना और संसार के भोगों से उसे विरक्ति हो गई। माता-पिता से पूछकर दीक्षा अंगीकार की। फिर वीरंगत अनगार ने सामायिकादि ११ अंगों का १. देखें-अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ६, पृ. ८३0 में वृष्णिदशा की व्याख्या। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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