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५३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
निरयावलिका में इन्हीं दस कुमारों के हिंसाजन्य पापकर्मों के कारण नरकरूप दु.ख फलप्राप्ति का वर्णन किया गया है।' कल्पावतंसिका : दस अध्ययन : संक्षिप्त नामोल्लेख
इस निरयावलिका द्वितीय श्रुतस्कन्धगत दूसरा वर्ग कल्पावतंसिका (कप्पवडंसिया) है। इस उपांग में सौधर्म, ईशान आदि कल्प विमानवासी देवों में जो अपने तपोविशेष से उत्पन्न हुए हैं; उनका जीवनवृत्त दिया गया है। इसके भी दस कथानायकों के नाम से दस अध्ययन हैं-(१) पद्म, (२) महापद्म, (३) भद्र, (४) सुभद्र, (५) पद्मभद्र, (६) पद्मसेन, (७) पद्मगुल्म, (८) नलिनीगुल्म, (९) आनन्द
और (१0) नन्दन। इन दस कथानायकों को. पुण्य प्रकर्ष-उपार्जन के सुखद फल के रूप में सौधमादि देवलोकों की प्राप्ति हुई। पुष्पिका : दस अद्ययन : संक्षिप्त परिचय
इसके पश्चात् निरयावलिका तृतीय श्रुतस्कन्धगत तृतीय वर्ग पुष्पिका उपांग में १० अध्ययन हैं, जो दस कथानायकों के नाम पर हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) शुक्र, (४) बहुपुत्रिका देवी, (५) पूर्णभद्र देव, (६) मणिभद्र देव, (७) दत्तदेव (गंगदत्त), (८) शिव गृहपति, (९) वलिका देव, और (१०) अनाधृत देव। इसका संस्कृत रूपान्तर 'पुष्पिता' के टीकाकार ने इसका निर्वचन करते हुए कहा-“प्राणी की संयमभावना पुष्पित की हो, अर्थात् सुख प्राप्ति युक्त की हो, उसे पुष्पिता कहते हैं, अथवा संयम के परित्याग से जो दुःखगति प्राप्ति हुई थी, उसे मुकुलित की हो, अर्थात् पुनः असंयम का परित्याग करके पुष्पित-विकसित की हो, ऐसी पुष्पित भावना का सुखरूप प्रतिफल जिन्हें प्राप्त हुआ हो, उनका जिस उपांग शास्त्र में प्रतिपादन किया हो, वह शास्त्र पुष्पिता है। ___आशय यह है कि प्रथम अध्ययन चन्द्रमा का है। चन्द्रेन्द्र ने इन्द्रत्व कैसे प्राप्त किया? कैसे विकास हुआ? कौन-कौन इसके सामानिक देव हैं ? कौन देव इसके अधीनस्थ हैं ? इत्यादि वक्तव्यता है। दूसरे अध्ययन में इसी प्रकार सूर्य सम्बन्धी और तृतीय अध्ययन में शुक्र ग्रह सम्बन्धी वक्तव्यता है। चतुर्थ अध्ययन में बहुपुत्रिका देवी से सम्बन्धित वर्णन है। पाँचवें से दसवें तक क्रमशः पूर्णभद्रदेव की, छठे में मणिभद्रदेव की, सातवें में पूर्वभव में वन्दना के लिए समागत गंगदत्त देव की, आठवें में द्विसागरोपम स्थिति वाले देवरूप में उत्पन्न मिथिला निवासी शिव गृहपति की, नौवें में द्विसागरोपम
१. देखें-णिरयावलिया सुत्तं का संक्षिप्त परिचय- अभिधान राजेन्द्र कोष, भा. ४, पृ. २११० २. देखें-कप्पवडसिया शब्द का विवेचन, अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ३, पृ. २३५
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