SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य-पाप के निमित्त से आत्मा का उत्थान-पतन ५२७ अर्जित पुण्य राशि के फल स्वरूप देवत्व की प्राप्ति हुई। इसमें बहुपुत्रिका साध्वी का जीवन संयम से असंयम की ओर मुड़ गया था, किन्तु फिर कई भवों के उतार-चढ़ाव के बाद वह संयम की शुद्ध साधना की ओर मुड़ी। चन्द्र, सूर्य, शुक्र आदि ज्योतिषी देवों में स्थान पाया। शेष पांचवें से दसवें अध्ययन के कथानायकों ने पूर्वभव में व्रत-नियमादि की साधना करके पुण्योपार्जन के फलस्वरूप देवत्व की प्राप्ति की । पुष्पचूलिका में संयम साधना में उत्तरगुणविराधना से देवी रूप में पुष्पचूलिका सूत्र में दस कथानायिका श्री, ही आदि देवियों का वर्णन है, जिन्होंने अपने पूर्व जीवन में संयम की साधना तो की, किन्तु उत्तरगुणों की विराधना करने से, तथा तपश्चरण एवं मूलगुणों की सुरक्षा के कारण प्रथम देवलोक की उस उस नामवाली देवी बनीं। वृष्णिदशा में वृष्णिवंशीय दश साधकों का वर्णन वृष्णिदशा में निषध आदि अन्धकवृष्णिनरेश के कुल में उत्पन्न दस साधकों का वर्णन है, जो संसार के भोगों से विरक्त होकर संयम साधना में दत्तचित्त हुए । अन्तिम समय में संल्लेखना संथारा करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए और फिर वहाँ से व्यवकर महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध-बुद्ध मुक्त होंगे।' इन सबमें आत्मा के उत्थान और पतन के रोचक और प्रेरक आख्यान हैं। अनुत्तरौपपातिक सूत्र में प्रचुर पुण्यराशि वाले मानवों को अत्यधिक सुखद फल प्राप्ति अनुत्तरीपपातिक सूत्र के दश अध्ययनों में जिन पुण्यशालियों का वर्णन है, वे विविध भोगों में पले हुए थे; पांचों इन्द्रियों की पर्याप्त विषयसुख सामग्री उनके पास थी, फिर भी वे भोगों के कीचड़ में नहीं फंसे, उन्होंने कर्मक्षय करने हेतु पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप की आराधना की। सराग संयम होने से तथा देव-गुरु-धर्म के प्रति प्रशस्त राग (भक्ति) होने से संचित पुण्यराशि के फलस्वरूप देहावसान होने पर वे सब अनुत्तरविमानवासी देवलोक के देवों में उत्पन्न हुए। वहाँ की आयु, भव एवं काय जनित स्थिति पूर्ण होने पर वे एक बार मनुष्य भव प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। अनुत्तरौपपातिक सूत्र में तीन वर्ग, तेतीस अध्ययन अनुत्तरौपपातिक दशा में तीन वर्ग हैं; जिनमें क्रमश: १०, १३ और १० देखें - निरयावलिका आदि पाँचों सूत्रों की प्रस्तावना । 9. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy