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व्यावहारिक जीवन में
फर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता
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सिद्धान्त की कसौटी और जैन कर्मसिद्धान्त
सिद्धान्त चाहे कितना ही ऊँचा हो, उत्कृष्ट हो, यदि व्यावहारिक जीवन में या दैनन्दिन जीवन में उसका उपयोग न होता हो तो वह केवल हवाई कल्पना ही सिद्ध होता. है। मात्र वादी और प्रतिवादी द्वारा तर्क-वितर्कों से अन्त में सिद्ध होने वाला सिद्धान्त' केवल आकाशीय उड़ान है। सच्चा सिद्धान्त वह है जो व्यावहारिक धरातल पर पूरा-पूरा उतरता हो।
इस दृष्टि से जेन-कर्मविज्ञान द्वारा प्रस्तुत कर्मसिद्धान्त की बातें कोरे आदर्श की आकाशीय उड़ान नहीं हैं, अपितु आदर्श के साथ-साथ व्यवहार में भी, यहाँ तक कि जीवन के दैनन्दिन व्यवहार में भी वह पद-पद पर उपयोगी है। यदि कर्मसिद्धान्त के दृष्टिगत रखकर चला जाए तो मनुष्य अनेक स्थलों पर अशुभ-कर्म से बच सकता है। उसके व्यावहारिक जीवन में कहीं गतिरोध नहीं आता, कर्मसिद्धान्त के अनुसार आचरण करने से उसके जीवन में प्रमाद की मात्रा कम हो जाती है, कषाय मन्द से मन्दतर होता जाता है, विपयासक्ति भी मन्दतर होती जाती है। वह अपनी जीवन-नैया को कर्मजल से पूर्ण सरिता के संवर और निर्जरारूपी दो तटों के बीच से खेकर सकुशल उस पार कर्ममुक्ति के क्षेत्र में पहुँच सकता है। __ यदि वह साधु-साध्वीवर्ग का है तब तो अपने आध्यात्मिक, सामाजिक और व्यावहारिक जीवन में 'जयं चरे, जयं चि?'२ (यत्नाचार) के अनुसार अप्रमत्त रहकर बखूबी कर्मसिद्धान्त का उपयोग कर सकता है। यदि वह गृहस्थ वर्ग का है तो में यावधानी रखकर श्रीमद् राजचन्द्र, महात्मा गाँधी, जनकविदेही आदि की तरह आसान
-सिद्धान्तकौमुदी टीका (विज्ञानभिक्षु
१. वादि प्रतिवादिभ्यामन निणीतोऽर्थः सिद्धान्तः। २. अरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए।
अयं भजती भामंती पावकम्मन बंधई।
-दशवैकालिक अ.४
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